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अकबर इलाहाबादी कृत 'गाँधीनामा' का एक अध्ययन – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

अकबर इलाहाबादी कृत गाँधीनामा का एक अध्ययन – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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हिंदी साहित्य की एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में विख्यात अकबर इलाहाबादी का जन्म १६ नवम्बर, १८४६ को सम्राट अकबर द्वारा इलाही धर्म के लिए बसाई गयी नगरी इलाहाबाद में हुआ था. आपने अपनी जवानी के दिनों में १८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम देखा. महात्मा गाँधी युग में आपने उनकी एक-एक गतिविधियों के गवाह बने. बहुत ही करीब से महात्मा गाँधी को देखने और सुनने का अवसर आपको मिला. जब भी महात्मा गाँधी का इलाहाबाद प्रवास होता था, तब आप के कदम आनंद भवन की ओर अपने आप चले जाते थे. कट्टर मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के बावजूद आपने मुस्लिम समाज की रूढ़िवादिता और ढोंग पर तीखा प्रहार किया. आपकी शेरो शायरियों में तंज की धार इतनी तीखी होती थी कि श्रोता और पाठक तिलमिला जाता था, पर उस सच को तहेदिल से स्वीकार भी कर लेता था. महात्मा गाँधी के जीवन और दर्शन को लेकर आपने गान्धिनामा रचना की. इसके आलावा आपकी प्रसिद्द रचनाओं में हंगामा है क्यूं बरपा, कोई हंस रहा है कोई रो रहा है, दिल मेरा जिससे बहलता दुनियां में हूँ दुनियां का तलबगार नहीं हूँ आदि हैं.

गान्धिनामा का की शुरुआत अकबर इलाहाबादी बड़े ही जोरदार अंदाज में करते हैं. इस पंक्ति में वे सत्य को धरातल के पटल पर बिना किसी झिझक के रख देते हैं. वे कहते हैं कि इस समय सभी दौरों का अंत हो चूका है. या दौर गान्धिनमा का है. उनकी इस पंक्ति को देखिये-

इन्किलाब आया, नई दुन्या, नया हंगामा है,

शाहनामा हो चूका, अब दौरे गांधीनामा है.

दीद के काबिल अब उस उल्लू का फ़ख्रो नाज़ है,

जिससे मगरीब ने कहा, तू ऑनरेरी बाज़ है.

वे कहते हैं कि हर जंग में अपनी उपस्थिति से रोमांच भर देने वाला क्षत्रीय भी इस समय चुप बैठा है. लगता है कि उसका रुधिर शांत हो गया है. अब न उनके पास पद रह गये हैं और न शाने शौकत ही रह गयी है. इन पंक्तियों में वक्रोक्ति का दर्शन कीजिए

है क्षत्री भी चुप, न पट्टा न बांक है,

पूरी भी खुश्क लब है कि घी छ: छटांक है.

इलाहाबादी तत्कालीन खेती बाड़ी, बाग़-बगीचे को अपनी लेखनी का कथ्य बनाते हुए कहते हैं कि भरपूर फसलों से खेत खलिहान लहलहा रहे हैं. पेड़ों पर फल लादे हुए हैं. इसके बावजूद भी इस देश की नागरिक की थाली में कुछ भी नहीं है. उसका लब सूखा हुआ है और चेहरा मुरझाया हुआ है. इसकी एक बानगी देखिये -

गो हर तरफ है, खेत फलों से भरे हुए,

थाली में खुरपुंज की फ़कत एक फांक है.

औरतों की हालात का वर्णन करते हुए इलाहाबादी कहते हैं कि पूरे विश्व के तन को ढकने वाले इस डेढ़ की माँ-बहनों के तण ढकने के लिए पर्याप्त कपडे भी नहीं है. इसका एक उदहारण देखिये -

कपडा गिरा है सितर है औरत का आशकार,

कुछ बस नहीं जबां पे फ़क़त ढांक-ढांक है.

महात्मा गाँधी के आगमन से इलाहाबादी को कुछ् तसल्ली हुई है. वे कहते हैं कि यह अल्लाह का करम है कि महात्मा गाँधी के स्वदेशी के कारण ही देश की गाड़ी आगे बढ़ रही है. उनके कारण ही देश की रही सही इज्जत बची हुई है. इसकी एक बानगी उनकी इस रचना में देखिये

भगवान् का करम हो स्वदेशी के बैल पर,

लीडर की खींच खांच है, गाँधी की हांक है.

अकबर पे बार है यह तमाशाए दिल शिकन,

उसकी तो आखिरत की तरफ ताक़-झांक है.

जो लोग महात्मा गाँधी की आलोचना करते हैं, उनको नेक सलाह देते हुए वे कहते हैं कि महात्मा गाँधी से मिल कर देखिये. उनका जो तरीका है, उसे समझिये. उनके स्वाभाव को समझिये. बेकार में अक्ल के घोडे मत दौड़ाइए. इससे कुछ नहीं निकलने वाला है. उसकी एक नजीर देखिये -

महात्मा जी से मिल के देखो, तरीक क्या है, सोभाव क्या है,

पडी है चक्कर में अक्ल सबकी बिगाड़ तो है बनाव क्या है.

अपने मुल्क की तस्वीर वे इन शब्दों में बखान करते हैं. वे कहते हैं कि हमारे मुल्क की सरसब्ज इकबाले फरंगी है. यहाँ के लोग पैदायशी जंगबाज है. उसकी एक बानगी देखिये -

हमारे मुल्क में सरसब्ज इकबाले फरंगी है,

कि ननको ऑपरेशन में भी शांखे खान जंगी है.

भारत देश विभिन्नताओं का देश है. यहाँ विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं. उनके दिलों के बीच में दूरियां भी हैं. उस आदमी को अपने तन की क्या परवाह है. जब आदमी पर उसका पद यानी सर हावी हो गया है. इसकी बानगी इलाहाबादी की इन पंक्तियों में देखिये

कौम से दूरी सही हासिल जब ऑनर हो गया,

तन की क्या परवाह रही जब आदमी सर हो गया.

इलाहाबादी कहते हैं कि हम लोग गाँधी के बाद से हम यही कह कर भाग जाते हैं. इस देश के नागरिकों का कदम साहब नहीं के आगे जमते नहीं है. इस प्रकार की बानगी इन पंक्तियों में देखिये

यही गाँधी से कह कर हम तो भागे,

कदम जमते नहीं, साहब के आगे.

इलाहाबादी कहते हैं कि इस दरिया में रह कर भी महात्मा गाँधी ने उनसे पंगा ले लिया है. लोग उन्हें बेवकूफ कहते हैं. कहते हैं कि उस गाँधी ने दरिया में रह कर ही मगर से वैर ले लिया है. शायद वे यह नहीं जानते कि महात्मा गाँधी उस मगर को अहिंसावादी विधि से नाथना भी जानता है. इसका एक उदाहरण उनकी इन पंक्तियों में देखिये -

वह भागे हजरते गाँधी से कह के,

मगर से वैर क्यों दर्या में रह के.

इलाहाबादी कहते हैं कि इस देश की जनता न जाने क्यों उछल रहे हैं. जब गाँधी वज्द में हैं. तो उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. इसकी बानगी उनकी इन पंक्तियों में देखिये

इस सोच में हमारे नासेह टहल रहे हैं,

गाँधी तो वज्द में है, यह क्यों उछल रहे हैं.

इलाहाबादी कहते हैं कि जिनका जनता के बीच के कोई वजूद नहीं है. जिनकों कौंसिल में जगह नहीं मिली. जनता में उनकी भी जय के मजनूँ पल रहे हैं. इसकी एक बानगी इन पंक्तियों में देखिये -

नश्वोनामाये काउन्सिल जिनको नहीं मुयस्सर,

पब्लिक की जय में उनके मजनूं पल रहे हैं.

है वफ्द और अपीलें, फ़र्याद और दलीलें,

और किबरे मग्रीबी के अरमां निकल रहे हैं.

यह सारे कारखाने अल्लाह के हैं अकबर,

क्या जाए दमजदन है यूँ ही यह चल रही है.

इलाहाबादी तत्कालीन शेखों की मानसिकता को दोषपूर्ण बताते हुए कहते हैं कि मुझे केक बात समझ में नहीं आ रही है ये शेख लोग महात्मा गाँधी के खिलाफ इस वक्त क्यों उबल रहे हैं, क्यों उनको गाँधी की नीतियां अच्छी नहीं लगती हैं. फिर भी इलाहाबादी बहुत आश्वस्त हैं, वे कहते हैं कि यदि आप ध्यान से देखेंगे तो यह बात समझ में आ जायेगी कि वे महात्मा गाँधी के सांचे में ही ढल रहे हैं. इन भावों का दिग्दर्शन इन पंक्तियों ने कीजिये-

अगर छे शेखों बरहमन उनके खिलाफ इस वक्त उबल रहे हैं,

निगाहें तहकीकात से जो देखो उन्ही के सांचे में ढल रहे हैं.

इलाहाबादी अपनी सच बात को बड़े ही बेबाकी के साथ कहते हाँ. वे कहते हैं कि सही बात तो यह है कि हम मालिक हैं और तुम नौकर हो. यह बात और है कि इस समय नौकर ही मालिक बना हुआ है. अंग्रेजों की नियति का का बड़ी बेबाकी से वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि अंग्रेजों की तो यह ख्वाहिश ही है कि वे बाजार पर कब्ज़ा कर लें, और दरबार में उनके ही इशारे पर तुम राज करते रहो. इस सच का खुलासा उन्होंने इन शब्दों में किया है-

हम ताजिर हों, तुम नौकर हो, इस बात पे सब की अक्ल है गुम,

अंग्रेज की तो ख्वाहिश है यही, बाज़ार में हम, दरबार में तुम.

इलाहाबादी विरोधियों को आगाह करते हुए कहते हैं, कि हे भारतीयों तुम यह बात बहुत अच्छी तरह जान लो कि यह मुल्क तो महात्मा गाँधी के ही साथ खड़ा है. इसलिए बेकार की बातें बना कर लोगों को मत बर्गालाओं. इस पंक्तियों में इस भाव की बानगी देखिये -

सुन लो यह भेद, मुल्क तो गाँधी के साथ है,

तुम क्या हो? सिर्फ पेट हो, वह क्या है? हाथ है.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और महात्मा गाँधी में कोई विभेद नहीं है. दोनों देश की आज़ादी के लिए प्रयत्नशील हैं. इस भाव को इलाहाबादी ने इस प्रकार अपने छंदमय धागे में पिरोया है

न मौलाना में लंगिश है न साजिश की है गाँधी ने,

चलाया एक रुख उनको फखत मगरिब की आंधी ने.

इलाहाबादी महात्मा महात्मा गाँधी की अहिंसावादी नीतियों को इस प्रकार अपने छंदों में ढालते हैं

लश्करे गाँधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं,

हाँ, मगर बे इंतिहा सब्रो कनाअत चाहिए.

क्यों दिले गाँधी से साहब का अदब जाता रहा,

बोले क्यों साहब के दिल से खौफे रब जाता रहा.

यही मर्जी खुदा की थी, हम उनके चार्ज में आये,

सारे तस्लीम ख़म है, जो मिज़ाजे जार्ज में आये.

तत्कालीन राजनेताओं की मानसिकता का वर्णन करते हुए इलाहाबादी कहते हैं कि

मिल न सकती मेम्बरी तो जेल मैं झेलता,

बे सकत हूँ वर्ना कोई खेल मैं खेलता.

इलाहाबादी कहते हैं कि अंग्रेजों से मुकाबला तो महात्मा गाँधी का चरखा ही कर रहा है. इस चरखे ने अंग्रेजों का बाजार पर कब्ज़ा शिथिल कर दिया है. उसकी एक बानगी देखिये

किसी की चल सकेगी क्या अगर कुर्बे क़यामत है,

मगर इस वक्त इधर चरखा, उधर उनकी वजारत है.

भाई मुस्लिम लगे गर्दू देख कर जागे तो हैं,

खैर हो किब्बे की लन्दन की तरफ भागे हैं.

कहते हैं बुत देखें कैसा रहता है उसका स्वाभाव,

हार कर सबसे मियां हमरे गले लागे तो है.

इलाहाबादी कहते हैं कि जब मैं अंग्रेजों से पूछता हूँ कि तुम महात्मा गाँधी को गिरफ्तार क्यों नहीं करते, तो वे कहते हैं कि तुम लोग आपस में अब क्यों नहीं लड़ते हो? यदि तुम दंगा-फसाद करो तो हम उसकी तोहमद गाँधी पर लगाकर उसको जेल में डाल दें. इसकी बानगी उनकी इन पंक्तियों में देखिये

पूछता हूँ आप गाँधी को पकड़ते क्यों नहीं,

कहते हैं आपस में तुम लोग लड़ते क्यों नहीं.

मय फरोशी को तो रोकूंगा मैं बागी ही सही,

सुर्ख पानी से है बेहतर मुझे कला पानी.

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