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औपनिवेशिक दासता से निकलकर ही रंगमंच में भारतीय दृष्टि संभव - प्रो आशीष त्रिपाठी

औपनिवेशिक दासता से निकलकर ही रंगमंच में भारतीय दृष्टि संभव - प्रो आशीष त्रिपाठी
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दिल्ली। 'भारतेन्दु हरिश्चंद्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रारंभिक प्रयासों के बाद हिंदी रंगमंच पर हबीब तनवीर ने 1954 में आगरा बाज़ार तथा 1958 में मिट्टी की गाडी के प्रदर्शन कर यथार्थवादेतर कल्पनापूर्ण भारतीय रंगदृष्टि का प्रारंभिक अवतरण कर लिया। इन्हीं नाटकों में तनवीर लोक रंगमंच के तत्त्वों से संस्कृत नाटकों की प्रदर्शन पद्धति और और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की रंग युक्तियों से भारतीय दृष्टि की स्थापना करते हैं जिसने आगे हमारी अपनी रंग दृष्टि की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले।' बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आचार्य और सुपरिचित कवि-आलोचक प्रो आशीष त्रिपाठी ने उक्त विचार अभिरंग के सत्रारम्भ समारोह में व्यक्त किये। हिन्दू कालेज की हिंदी नाट्य संस्था द्वारा आयोजित इस समारोह में प्रो त्रिपाठी ने कहा कि भारतीय रंग दृष्टि और रंग शैली की खोज के प्रारंभिक संकेत इप्टा तथा उसके कलाकारों उदयशंकर, शान्तिवर्धन, शांता गांधी आदि के काम में मिलते हैं लेकिन इसे पूर्णाकार देने और लोक में स्वीकृत कराने - मान दिलाने के लिए हबीब तनवीर के योगदान को भूला नहीं जा सकता। प्रो त्रिपाठी ने पश्चिम की यथार्थवादी दृष्टि के विपरीत भारतीय रंगशैली को दर्शकों की भागीदारी वाली, उनका रंजन और शिक्षण करने वाली रंगशैली बताया जिसमें लोकनाटकों जैसी सहजता, पुनर्नवता और जीवंतता विद्यमान है। उन्होंने भारतीय लोक नाट्य शैलियों यथा यक्षगान, नौटंकी, ख़याल, माचा, नक़ल, कथकली इत्यादि की विस्तार से चर्चा की और भारतीय रंग दृष्टि से इनके सम्बन्ध की व्याख्या की। व्याख्यान के बाद विद्यार्थियों से हुए संवाद के दौरान एक सवाल के जवाब में प्रो त्रिपाठी ने कहा कि प्रत्येक कार्य के लिए सरकार का मुखापेक्षी होना ठीक नहीं है। उन्होंने रंगमंच को जनता की गतिविधि बताया जिसे साधारण लोग ही करते रहे हैं।

अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ हिंदी आलोचक प्रो जीवन सिंह ने कहा कि नाटक सामाजिक विधा है क्योंकि मंच अकेले आदमी से नहीं बनता। उन्होंने इसे बड़ी विधा बताने का तर्क इसकी सार्वजनिकता बताया। प्रो सिंह ने संगीत और नृत्य को नाटक के लिए अपरिहार्य बताया जिनके मेल से ही नाटक का जन्म होता है। राजस्थान की अलीबख्शी ख़याल परम्परा का उल्लेख करते हुए उन्होंने रंगमंच में भारतीय दृष्टि को लोक से अभिन्न बताया। उन्होंने कहा कि विभिन्न लोक शैलियों के रास्ते ही भारतीय रंगदृष्टि को समझा जा सकता है। प्रो सिंह ने अलीबख्शी ख़याल के कृष्ण -यशोदा संवाद के कुछ पद भी सुनाए। अभिरंग की सत्र 2019 -20 की कार्यकारिणी की घोषणा भी प्रो सिंह द्वारा की गई।

इससे पहले अभिरंग के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने अभिरंग के इतिहास और गतिविधियों का परिचय दिया। हिंदी विभाग के वरिष्ठ अध्यापक डॉ रामेश्वर राय ने प्रो आशीष त्रिपाठी और डॉ रचना सिंह ने प्रो जीवन सिंह का शाल ओढ़ाकर स्वागत किया। कार्यक्रम का संयोजन हिंदी विभाग के अध्यापक डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया। अभिरंग के सूचना पट्ट का लोकार्पण भी अतिथियों द्वारा किया गया। समारोह में वरिष्ठ कवि राघवेंद्र रावत, कथाकार संदीप मील, डॉ अभय रंजन, डॉ प्रणव ठाकुर, अजय आनंद सहित अभिरंग से जुड़े पुराने विद्यार्थी तथा शिक्षक भी उपस्थित थे। अंत में अभिरंग की संयोजक काजल साहू ने सभी का आभार व्यक्त किया।


फोटो - अनीशा राणा

रिपोर्ट - विकास मौर्य

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