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आखिर किसानों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन? चौधरी शम्स

आखिर किसानों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन?  चौधरी शम्स
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आखिर किसानों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन? है न यह अपने आप में एक अजीबोगरीब सवाल जो बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाला है। जी हाँ! मैं उसी किसान और उसकी दुर्दशा की बात कर रहा हूँ जिसे धरती माँ का असल वारिस कहा जाता है, मैं उसी किसान और उसकी स्तिथि पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की बात कर रहा हूँ जिसे अन्नदाता कहा जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि मैं उस देश के किसानों और उनके हालात की बात कर रहा हूँ जिस देश को किसानों का देश कहा जाता है । जिस देश का संविधान कृषि प्रधानता की बात करता है । जहाँ लोकतंत्र है और लोकतान्त्रिक पद्धति से जनता द्वारा, जनता की, जनता के लिए सरकारें चुनने का प्रावधान है । लोकतन्त्र में संख्याबल का बहुत महत्व होता है ।


लोकतन्त्र में यह धारणा आम है कि जिसकी संख्या भारी, उसी का होगा मुल्क़ का प्रभारी । देश की कुल आबादी का लगभग 70% (सत्तर प्रतिशत) आबादी अकेले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुडी है । इतनी बड़ी संख्याबल का लोकतंत्र में अर्थ होता है कि किसान अपने मतों से अपनी पसन्द की सरकार बनाकर अपनी पसन्द का प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री का चुनाव कर सत्ता का रिमोट पर अपना वर्चस्व बनाये रखने हेतु पूर्ण रूप से सक्षम होना । लेकिन 70% आबादी के रूप में संख्या शक्त्ति का स्वामी किसान देश की आज़ादी के 70 साल बाद भी अपनी दुर्दशा का रोना रो रहा है और देश के सबसे निम्न वर्ग में उसकी गणना हो रही हो तो यह सबसे बड़ा आश्चर्य है और किसान के साथ-साथ देश के लिए भी एक गम्भीर विषय है।


देश के तथाकथित किसान नेताओं के लिए यह आईना है जो उनके किसान नेता होने व उनके द्वारा किसानों के हितों में किये गये ईमानदार प्रयास का असल तश्वीर दिखा रहा है । किसान नेताओं पर दोषारोपण के पूर्व मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि देश के किसानों ने अपनी विशाल आबादी के साथ महाशक्तिशाली होने का एहसास सत्ता को कराने का प्रयास कभी किया अथवा अपनी दावेदारी सत्ता पर अपने नेता को लेकर कभी किया । अगर ऐसा नहीं किया है तो ऐसे में किसानों की दुर्दशा का ज़िम्मेदार कोई नेता कैसे हो सकता है । किसान अपनी विशाल आबादी (संख्याबल) के साथ सबसे शक्तिशाली समूह है और समूह की मजबूती संगठित होने पर है

किसान का महाशक्तिशाली होना तभी सम्भव है जब वह किसान बनकर, किसान संगठन या किसान हित में संघर्ष करने वाली पार्टी के बैनर तले संगठित रहे, किसान हितों के मुद्दों पर गम्भीर रहे और किसान हितों की शर्तों पर चुनाव के समय अपना सामूहिक निर्णय किसानादेश के रूप में करे । लेकिन ऐसा मुझे विगत लगभग 30 से 35 सालों के अंदर कभी देखने को नहीं मिला । खासतौर से उत्तर प्रदेश जो मूल रूप से कृषिप्रधान प्रदेश है में तो कतई देखने को नहीं मिला।


मैंने यहां हर व्यक्ति को हिन्दू बनाम मुसलमान, मन्दिर बनाम मस्जिद, दंगा-फसाद के आधार पर अपने मतों का प्रयोग करते हुए देखा है। किसान व कृषि तो चुनाव में इनका इशू/आधार तो कत्तई नहीं रहा। नतीज़ा किसान व कृषि का मुद्दा ही राजनीतिक दलों ने खासतौर पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली भाजपा ने अपना मुद्दा बनाना ही छोड़ दिया । राजनीतिक दलों ने चुनाव में ऐसे-ऐसे मुद्दे गढ़ना शुरू किया कि लोगों का ध्यान ही किसान व कृषि पर न जावे और यदि कोई दल किसान व कृषि की बात करे और मुद्दा उठावे तो किसान ही उसे नकार दे, अनसुनी कर दे । धर्म व जाति आधारित राजनीति ने देश को इस कागार पर लाकर खड़ा कर दिया है कि कृषिप्रधानता की बात करने वाला संविधान वाला लोकतान्त्रिक किसानों का देश भारत में किसान ढूंढने से नहीं मिलेंगे । सभी अपना परिचय हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि के रूप में देते मिलेंगे या फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यादव, शेख, पठान, शर्मा, गोंड, कुम्हार, अंसारी, मन्सूरी आदि उपजातियों के रूप में देते हुए मिलेंगे।

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