स्वतन्त्रता , स्वराज और महात्मा गांधी - प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

Update: 2017-03-02 03:47 GMT

स्वतंत्रता क्या हैऔर स्वराज क्या हैइस प्रश्न का जवाब जो मिलता हैवह बहुत कुछ ठीक नहीं होता है. इस तरह के प्रश्न महात्मा गाँधी के समय भी अक्सर लोग पूछा करते थे. महात्मा गाँधी स्वराज के हिमायती थेयह बात सभी जानते थेइसी स्वराज में स्वतंत्रता भी अन्तर्निहित है. स्वराज ज्यादा व्यापक है.इसे समझने के लिए महात्मा गाँधी के शब्द इस प्रकार हैं- कहा जाता है कि स्वतंत्रता का प्रस्ताव लार्ड बरकनहेड का माकूल जवाब है. अगर यह बात संजीदगी से कही गयी है तो यह स्पष्ट है कि हमें इसका अनुमान तक नहीं है कि शाही आयोग नियुक्त करने और उसकी घोषणा से उत्पन्न परिस्थिति का ठीक ठाक क्या उपयुक्त उत्तर हो सकता है. इस नियुक्ति के जवाब में यह जरुरी नहीं कि बड़े जोशीले भाषण दिए जाएँ. बड़ी-बड़ी बातें बनाने से कुछ होना जाना नहीं हैइसके लिए तो कुछ वैसा ही माकूल और भरपूर काम कर दिखाना होगाजो ब्रिटिश मंत्रीउनके साथी और पिछलग्गुओं की करनी के लायक हो. फर्ज कीजिये कि अगर कांग्रेस किसी किस्म का कोई प्रस्ताव पास नहीं करती मगर अपने पास के सारे के सारे विदेशी कपड़ों की होली जला डालती और सारे राष्ट्र से भी उस नियुक्ति के अपमान का भरपूर जवाब तो नहीं ही होता. अगर हर एक सरकारी कर्मचारी से हड़ताल करा देतीऊंचे से ऊंचे न्यायाधीशों से लेकर,नीचे मामूली चपरासी या सिपाही और फौजी सेना तक सेउनका काम बंद करा देतीतो वह यथेष्ट समुचित उत्तर होता. इतना तो इससे जरुर ही होता कि जिस बेफिक्री और लापरवाही से आज कल ब्रिटिश मंत्रीगण और दुसरे अधिकारी हमारे गर्जन-तर्जन को सुन रहे हैं. उनका वैसा अविचिलित भाव न बना रह पाता.

कहा जा सकता है कि यह परामर्श तो सर्वथा दोष रहितमगर मुझे इतना समझना चाहिए कि इसे अमल में किसी तरह नहीं लाया जा सकतामैं ऐसा मानता हूँ. आज कितने ही भारतीय हैंजो इस समय चुप हैंपर अपने-अपने ढंग से उस शुभ दिन की तयारी कर रहे हैं. जबकि हमें गुलाम बनाये रखनेवाली इस सरकार को चलाने वाला हर हिन्दुस्तानी इस अराष्ट्रीय नौकरी को लात मार देगा. कहा जाता है कि जब कुछ कर दिखाने की ताकत न हो तो जबान पर ताला लगाये रखने में ही सहस है. अक्लमंदी तो जरुर है. बिना कुछ किये महज बहादुरी भरे भाषण झाड़नाशक्ति का अपव्यय ही होगा. फिर सन १९२० में जब देशभक्तों के भाषण के बदले जेलखाने भरना सीख लियातबसे जोशीले भाषणों की तड़क-भड़क जाती रही. वाणी तो उनके लिए जरुरी हैजिनकी जबान को काठ मार गया हो. गर्जन-तर्जन करने वालों को लिए तो संयम ही चाहिए. अंग्रेज शासक हमारे भाषणों पर हमारा मखौल बनाते हैं और उनके कामों में अक्सर प्रकट होता है कि वे हमारे भाषणों की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते और इस प्रकार बिना कुछ कहे हीवे कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से हमें ताना देते हैं: हिम्मत हो तो कुछ करो. जब तक हम इस चुनौती का जवाब नहीं दे सकतेमेरी सम्मति में हमारी धमकाने वाली एक-एक बातएक एक इशारा हमारी ही जिल्लत हैअपनी नामर्दी का आप डंका पीटना है. मैंने देखा है कि जंजीरों में कसे हुए कैदी जेलरों को गलियां देते हैं और कोसते हैंजिससे जेलरों का महज मन बहलाव ही होता है.

और फिरक्या किसी अंग्रेज द्वारा की गयीए किसी ज्यादती का बदला लेने के लिए ही हमने स्वतंत्रता को एकाएक अपना लक्ष्य बना लिया हैक्या कोईकिसी को खुश करने के लिए या उनकी करतूतों का विरोध करने के लिए अपना ध्येय निश्चित करता हैमेरा कहना है कि ध्येय तो एक ऐसी चीज हैजिसकी घोषणा की जानी चाहिए और जिसकी प्राप्ति के लिए काम करते ही जाना चाहिएबिना इसका ख्याल किये कि दुसरे क्या कहते हैं या क्या धमकी देते हैं.

इसलिए हम यह भी समझ लें कि स्वतंत्रता से हमारा क्या अभिप्राय है. इंग्लैंडरूसस्पेनइटलीतुर्कीचिलीभूटान सभी को स्वतंत्रता प्राप्त है. हम इनमे से किसके जैसी स्वतंत्रता चाहते हैंयहाँ यह न कहा जाये कि मैं वही बात सिद्ध मान रहा हूँजिसे सिद्ध करना है. क्योंकि अगर यह कहा जाये कि हमें भारतीय ढंग की स्वतंत्रता की छह हैतो यह दिखलाया जा सकता है कि कोई दो भारतीयइस भारतीय ढंग की स्वतंत्रता कीएक तरह की परिभाषा नहीं बतलायेंगे. बात दरअसल यह है कि हम अपना परम ध्येय जानते ही नहीं. और उस ध्येय का रूप हमारी परिभाषाओं से नहींबल्कि स्वेच्छा या अनिच्छापूर्वक किये गये हमारे कामों से ही निश्चित होगा. अगर हम अबल हैं तो हम वर्तमान को संभाल लेंगे. भविष्य अपनी फ़िक्र आप कर लेगा. परमात्मा ने हमारे कार्यक्षेत्र और हमारी दृष्टि की मर्यादा बाँध दी है. इसलिए अगर हम आज का काम आज ही ख़त्म कर लें तो यही बहुत होगा.

मेरा यह भी दावा है कि स्वराज के ध्येय से सबको सर्वदा पूरा संतोष मिल सकता है. हम अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी  अनजाने में यह मान लेने की भयंकर भूल अक्सर किया करते हैं कि अंग्रेजी बोलने वाले मुट्ठी भर आदमी ही समूचा हिंदुस्तान है. मैं हर किसी को चुनौती देता हूँ कि इनडेपेंदेस के लिएवे एक ऐसा सर्वमान्य भारतीय शब्द बतलाएंजो जनता भी समझती हो. आखिर हमें अपने ध्येय के लिए कोई ऐसा स्वदेशी शब्द तो चाहिएजिसे तीस करोड़ समझते हों. और ऐसा एक शब्द  है स्वराज्यजिसका राष्ट्र के नाम पर पहले पहल प्रयोग दादाभाई नौरोजी ने किया था. यह शब्द स्वतंत्रता से काफी कुछ अधिक का द्योतक है. यह एक जीवंत शब्द है. हजारों भारतीयों के आत्म-त्याग से यह शब्द पवित्र बन गया है. यह एक ऐसा शब्द हैजो अगर दूर-दूर तकहिंदुस्तान के कोने-कोने में प्रचलित नहीं हो चूका हैतो कम से कम इसी प्रकार के सभी दूसरे शब्दों से अधिक प्रचलित तो जरुर है. इसे हटाकरबदलें में कोई ऐसा विदेशी शब्द प्रचलित करनाजिसके अर्थ के बारे में शंका हैएक प्रकार का अनाचार होगा. यह स्वतंत्रता का प्रस्ताव ही शायद इस बात का सबसे बड़ा और अंतिम कारण बन गया है कि हम कांग्रेस की कार्रवाई हिन्दुस्तानी और सिर्फ हिन्दुस्तानी और सिर्फ हिन्दुस्तानी में ही चलायें. यदि सारी कार्रवाई हिन्दुस्तानी भाषा में चलाती तो फिर इस प्रस्ताव के साथ जैसी बुरी बीती हैउसकी कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती. तब तो सबसे अधिक जोशीले भाषण देने वाले भी स्वराज शब्द के भारतीय अर्थ को ही सजाने-सवारने में और उनसे जैसी भी बन पड़तीइसकी शानदार या घटिया परिभाषा करने में ही अपनी सार्थकता मानते. क्या इससे ये इंडीपेनडेंट लोग कुछ सबक सीखेंगे और जिसको वे आजाद करना चाहते हैंउस पर जनता में काम करने का निश्चय करेंगे और जन सभाओं मेंजैसे कि कांग्रेस वगैरह की सभाओं में,अंग्रेजी बोलना बिलकुल छोड़ देंगे?

खुद तो मुझे उस स्वतंत्रता की चाह नहींजिससे मैं समझता ही नहीं. मगर हाँमैं अंग्रेजों के जुए से छूटना चाहता हूँ. इसके लिए मैं कोई भी कीमत चूका सकता हूँ. इसके बदले मुझे अव्यवस्था भी मंजूर है. क्योंकि अंग्रेजों की शांति तो शमशान की शांति है. एक सारे राष्ट्र के लिए जीवित होकर भी मुर्दे के सामान जिन्दा रहने की इस स्थिति से तो कोई भी दूसरी स्थिति अच्छी रहेगी. शैतान के इस शासन ने इस सुन्दर देश की आर्थिकनैतिक और आध्यात्मिकसभी दृष्टियों से प्राय: सत्यानाश ही कर दिया है. मैं रोज देखता हूँ कि इसकी कचहरियाँ न्याय के बदले अन्याय करती हैऔर सत्य के गले पर छुरी फेरती है. मैं भयाक्रांत उड़ीसा को अभी देख कर आ रहा हूँ. यह सरकार अपना पापपूर्ण अस्तित्व बनाये रखने के लिए मेरे ही देश के बंधुओं को इस्तेमाल कर रही है. मेरे पास कई शपथ पत्र अभी रखे हुए हैंकि खुर्दा जिले में प्राय: तलवार की नोक के बल परलोगों से लगन वृद्धि की स्वीकृति के कागजों पर दस्खत कराये जा रहे हैं. इस प्रकार की बेमिसाल फिजूलखर्ची ने हमारे राजा-महाराजाओं का सर फेर दिया हैजो इसकी बन्दर के समान नक़ल उतारने में,नतीजों की ओर लापरवाह होकर , अपनी प्रजा को धुल मिला रहे हैं. यह सरकार अपना अनैतिक व्यापार कायम रखने के लिए नीच से नीच काम करने से बाज आने वाली नहीं है. ३० करोड़ आदमियों को एक लाख आदमियों के पैरों तले दबाये रखने के लिएयह सरकार इतने बड़े सैनिक खर्च का भर लादे हुए हैजिसके कारण आज करोड़ों आदमी आधे पेट रहते हैं. शराब से हजारों के मुह अपवित्र हो रहे हैं.

पर मेरा धर्म तो हर हालत में अहिंसापूर्ण आचरण करना है. मेरा तरीका तो बल प्रयोग का नहींमत परिवर्तन का है. यह तो मैं स्वयं कष्ट सहन करने कान की अत्याचारी को कष्ट देने का. मैं जानता हूँ कि सारा का सारा देश इसे सिद्धांत के रूप में स्वीकार किये बिनाइसकी गहराई को समझे बिना भीइसे अपना सकते हैं. सामान्तया लोग अपने हर काम के दार्शनिक पक्ष को नहीं समझते. मेरी महत्त्वाकांक्षा तो स्वतंत्रता से कही ऊंची है. भारत वर्ष के उद्धार के जरिये ही मैं पश्चिम के उत्पीडन से पीड़ित संसार के सभी निर्बल देशों का उद्धार करना चाहता हूँ. इस उत्पीडन में इंग्लैंड सबसे आगे है. हिंदुस्तान जिस तरह अंग्रेजों का मत परिवर्तन कर सकता हैअगर वह करे तो एक विश्वव्यापी राष्ट्र-मंडल कास्वयं एक मुख्य भागीदार हो सकता है. जिसमे इंग्लैंड अगर चाहे तो हिस्सेदार होने का आदर पा सकेगा. काश हिंदुस्तान इस बात को समझ ले कि विश्वव्यापी राष्ट्र-मंडल का एक मुख्य सदस्य बनने का उसे हक़ हैइसलिए कि उसकी जनसँख्या अत्यंत विशालउसकी भौगोलिक परिस्थिति उसके उपयुक्त और युग-युग की विरासत में मिलीउसकी संस्कृति अत्यंत उच्च है. मैं जानता हूँमैं एक बहुत बड़ी बात कह रहा हूँ. स्वयं हीनावस्था में पड़े भारतवर्ष के लिए आशा करना कि वह संसार को हिला देगानिर्बल जातियों की रक्षा करेगा,धृष्टतापूर्ण लग सकता है. मगर स्वतात्न्त्रता की इस पुकार के प्रति अपने घोर विरोध को स्पष्ट करते हुए मुझे अपना आदर्श आपके सामने अब रखना ही पड़ेगा. मेरी यह महत्त्वाकांक्षा ऐसी हैजिसे पूरी करने के लिए जीना और प्राणों की बलि देना भी उचित होगा. मैं नतीजों के डर सेकभी सर्वोत्तम से जरा भी निचले स्टार कीकिसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकता. मैं स्वतंत्रता को अपना ध्येय बनाने का विरोध इसलिए ही नहीं कर रहा हूँ कि समय इसके अनुकूल नहीं है. मैं चाहता हूँ कि भारत वर्ष पूरी गरिमा के साथ अपने पैरों पर खड़ा होऔर उस स्थिति का निरुपद स्वराज शब्द से अधिक अच्छी तरह अन्य किसी भी एक शब्द से नहीं हो सकता. स्वराज में कैसा और कितना सार-तत्व होगायह इस बात से निर्धारित होगा कि राष्ट्र किसी अवसर विशेष आर कितना क्या कर पाता है. भारत के अपने पैरों खड़े होने का अर्थ होगा कि प्रत्येक राष्ट्र अपने पैरों खड़ा होने लगेगा.

महात्मा गाँधी ने अपने एकादश और रचनात्मक कार्यक्रम स्वराज को ध्यान में रख कर ही डिजायन किया था. यदि भारत में स्वराज लाना है तो प्रत्येक भारतीय को अपने जीवन की आत्मशुद्धि के लिए एकादस पालन करना आवश्यक है. अन्यथा स्वराज की सिर्फ बातें होंगीस्वराज आएगा नहीं।

(यह लेख मेरी पुस्तक का अंश है। लेखक या जनता की आवाज के अनुमति के बगैर इसके किसी अंश या लेख को प्रकाशित करना अवैधानिक है। )

 

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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