चंडीगढ़ केस: आग आप के घर तक भी पगुंचेगी, ज़रूरी नहीं कि आप 'खुशकिस्मत' हों

Update: 2017-08-08 09:24 GMT

चंडीगढ़ मामले में किसी तरह जान बचा पाईं पीड़ित लिखती हैं, ``खुशकिस्मत हूं क्योंकि मैं रेप के बाद किसी नाले में मरी नहीं पड़ी हूं।`` यह पढ़ते हुए आप हिमाचल प्रदेश की इस तरह की वारदातों को याद कीजिए। देशभर के दूसरे हिस्सों की वारदातें याद कीजिए। मैं रोहतक व दूसरे जिलों में रिपोर्टिंग के दौरान की उन वारदातों को ही याद नहीं कर रहा जिन्हें पुलिस ने `खोल देने` का दावा किया। महिलाओं, लड़कियों के उन क्षत-विक्षत, जले-अधजले शवों को भी याद कर रहा हूं जो इस `विकसित`, `सभ्य` जगत में पड़े मिले। कोई पहचान नहीं, सबूत नहीं, किस्सा खत्म। इन दिनों रेप का शिकार लड़कियों के केवल शव ही नहीं मिलते बल्कि शव के विभिन्न हिस्सों से, यौनांगों तक से ब्लेड, रॉड, पत्थर निकलते हैं। आसाराम ने दिल्ली केस में क्या कहा था, याद है न? और यह भी याद है न कि आसाराम को अभी तक कितना समर्थन हासिल है?                


चमकती दुनिया का अंधेरा              

तो क्या आप समझते हैं कि राह चलती महिलाओं-बच्चियों को उठाकर रेप करने, यातनाएं देने और फिर उनके शवों को क्षत-विक्षत करके कहीं नालों-गड्ढ़ों, खेतों में फेंक देने वाले आम ग़रीब, मध्यवर्गीय, प्रवासी लोग ही होते हैं? यह सच है कि यहां सवर्ण, दलित, अमीर, ग़रीब, हिन्दू, मुसलमान सभी मौके के मुताबिक यह करते पाए गए। लेकिन आप यह सोच बनाए रखना चाहते हैं कि चमचमाती गाड़ियों में शानदार कपड़े पहने घूमते लोग तो सभ्य हैं, उनके बीच आप सुरक्षित हैं? या यह कि आप लड़कियां या आप लड़कों के परिवार की लड़कियां तो बड़े शहरों, मॉल, गाड़ियों, कॉरपोरेट हाउसों आदि की दुनिया में घूमती हैं तो सुरक्षित हैं? लेकिन, इस तरह के अपराधों को आसानी से करके बच निकलने का दु:साहस जिस तबके के युवकों के पास है, वह ताकत और संसाधनों के लिहाज से सत्ताधारी वर्ग है। और जब सीधे शासनिक सत्ता से जुड़े परिवारों के तबके के ही युवक इस तरह के आरोपों से घिरे हों तो क्या यह सेफ दुनिया में विचरने के एहसास में जीने वाला तबका विचलित होगा? क्योंकि भयावह मुश्किलों की आंच जब अभिजात वर्ग तक पहुंचती थी, तभी उसमें बेचैनी हुआ करती थी। इलीट तबके तो इसीलिए वेश्यालयों की जरूरत के पक्षधर भी रहा करते थे। लेकिन, अब यह आग सर्वव्यापी है।               

गरीब की तो बात भी नहीं होती!              

कमजोर तबकों की महिलाएं, बच्चे, बच्चियां तो अपने गांवों में, अपने गांवों से दूर शहरों, जंगलों में समाज की कोई सहानुभूति हासिल किए बिना यातनाएं झेलते हुए मर ही रहे हैं/मारे ही जा रहे हैं। माफ कीजिएगा, उनके साथ बलात्कार और उनकी योनियों में पत्थर ठूंसना `सभ्य` समाज की `अधिकतर` महिलाओं को भी लॉजिकल ही लगता है। यह भयानक बात बहुत सी महिलाओं से होने वाली बातचीतों, बहुत सी वारदातों पर बहुत सी महिलाओं के `पक्ष` और सोशल साइट्स पर बहुत सी महिलाओं की टिप्पणियों को ध्यान में रखकर ही कह रहा हूं। चंडीगढ़ दिल्ली के पास है और इस शहर की शोहरत दिल्ली से ज्यादा सेफ, साफ-सुथरी और उल्लास भरी रही है। इस शहर में शुक्रवार रात में एक बेहद सीनियर आईएएस की बेटी गाड़ी से घर लौट रही होती है तो उसके साथ जो होता है, उसकी भयावहता उसके ही वाक्य में समझ सकते हैं, ``किसी तरह जान बचा पाई।`` वे लिखती हैं, ``खुशकिस्मत हूं क्योंकि मैं रेप के बाद किसी नाले में मरी नहीं पड़ी हूं।``


आप कह सकते हैं कि दलित, ग़रीब की बेटी के बारे में कौन बोलता है। पीड़ित लड़की भी यह कहती हैं और उनके कहे से भयावहता किस कदर है, इसका अनुमान भी लगा सकते हैं, ``ऐसा लगता है कि मैं एक आम आदमी की बेटी ना होने की वजह से खुशकिस्मत हूं, नहीं तो इन वीआईपी लोगों के खिलाफ खड़ा होने की उनके पास क्या ताकत होती है।`` लेकिन उनके पिता जो एडिशनल चीफ सेक्रेटरी जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं, उन्हें भी अपनी बेबसी, खतरे और दबावों का जिक्र सार्वजनिक स्पेस में करना पड़ता है। एक आरोपी भारतीय जनता पार्टी के हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला का बेटा विकास है तो पीड़ित लड़की के पिता की स्थिति को समझा जा सकता है। सीएम मनोहर लाल खट्टर तक का जो बयान वेबसाइटों पर घूम रहा है, निराशाजनक है। गरीबों-दलितों-`बेचारों` की तो जाने दीजिए, वे तो आप लोगों की गिनती में ही नहीं होते। मध्य व उच्च वर्गीय जन समझें कि ऐसी स्थितियों में वे फंसे होते तो क्या होता। और वे फंस रहे हैं। ऐसे केस बार-बार सामने आ रहे हैं। और हम देख रहे हैं कि यह कथित डिसीजनमेकिंग तबका भी किस तरह सामने दक्षिणपंथी सत्ता होते ही निरीह दिखाई देने लगता है।          


पीड़िता की ट्रोलिंग           

हैरानी नहीं कि चंडीगढ़ केस में सोशल मीडिया पर पीड़त लड़की को ट्रोल करना शुरू कर दिया गया। बीजेपी के पदाधिकारी तक अजीबोगरीब बातें लिख रहे हैं - ``पप्पू पर भी रेप का केस दर्ज हुआ था। फलां-फलां नेताओं ने यह किया था। फलां कांग्रेस सांसद ने तो उस उम्र में फलां हरकत की थी।`` लड़की के रात में घर से बाहर होने, लड़के तो फिर लड़के हैं, फर्जी मामला लगता है जैसी तमाम बातें भी। इस केस में पीड़ित प्रशासनिक पद के तौर पर ताकतवर पिता की बेटी है और आरोपी शासन से जुड़े दल के एक शीर्ष पद वाले पिता का बेटा है। दोनों सामाजिक प्रभुत्व वाली एक ही जाति से ताल्लुक रखते हैं।


लेकिन हम देखते हैं कि पीड़ित परिवार कितना वलनरेबल है और अनसेफ महसूस कर रहा है। खतरनाक बात यह है कि ताकतवर से लेकर वंचित तबकों तक का बहुमत सत्ता की ताकत की भाषा ही बोलता दिखाई देता है। इस केस में हलका सा अंतर यह है कि हरियाणा के समाज से पीड़ित के पक्ष में भी अपेक्षित रूप से कम ही सही, समर्थन दिखाई दे रहा है। कई दूसरे मामलों में जिन वाहियात और अमानवीय कुतर्कों से कमजोर तबकों की लड़कियों को ट्रोल किया गया था, अब वे लोग उन प्रचलित कुतर्कों को भी चुनौती दे रहे हैं। ठीक इस मौके पर इन लोगों तक बात पहुंचे तो मैं पहुंचाना चाहूंगा कि दूर तक और निर्णायक ढंग से इस प्रवृत्ति को चुनौती देनी है और वाकई पीड़ित के पक्ष में खड़े हैं तो कबीलाई परंपरा की तरह `हमारे बेटे` कहकर अपराधिक मामलों में उनके लिए पंचायतें सजानी बंद करनी होंगी। हिंदू या मुसलमान और जात या पात के नाम पर अपने भीतर न्याय का पक्ष धूमिल नहीं होने देना पड़ेगा।          


इस मामले को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता               

जब एक के बाद एक सनसनीखेज अपराध हो रहे हैं तो यह कहना मुश्किल है कि आप इस पर बोले तो उस पर क्यों नहीं बोले। लेकिन यह केस कई मामलों में नजरअंदाज किए जाने लायक नहीं है। इसके सहारे हम बहुत सी वारदातों और सिर पर आ गए खतरे को समझ सकते हैं और रख सकते हैं। मसलन, अब सत्ता से जुड़े लोग या उनके निकट के लोग कितने भी शर्मनाक या आपराधिक आरोपों से घिरे हों और चीज़ें बहुत साफ भी हों, शर्मिंदा होने या न्याय का नाटक तक करने की जरूरत नहीं समझते हैं। यहां तक कि अपराध अपने को `मार्शल रेस`, `परंपारगत` या `पंचायती` जातियों की महिलाओं से जुड़ा हो तो भी उन्हें समर्थन में कोई कमी आने का खतरा महसूस नहीं होता है। इस केस में अपराधी ताकतवर पृष्ठभूमि के नहीं होते तो शायद उन पर कुछ अनसुलझे केस की गुत्थियों तक पहुंचने के लिए भी जरूरी सख़्ती होती।            


इस स्थिति तक आने की एक बड़ी वजह ऐसे मामलों को लेकर कथित ताकतवर जातियों की बाधित और पक्षपाती दृष्टि भी रही है। इस भयानक केस में मध्य व उच्च वर्गीय महिलाओं की सोशल साइट्स तक पर खामोशी भी हैरत में डालने वाली लगती है और सीनेरियो की काफी कुछ खबर देती है। यह लिखते हुए मुझे चंडीगढ़ के अपने कुछ साथियों की भी याद आ रही है जो अपनी बेटियों को बहुत प्यार करते हैं। वे भी चुप हैं। वे भय और शायद अपनी सियासी मजबूरियों को लेकर भी निराश होंगे। 

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