हॉस्टल, अंतेवासी और महात्मा गांधी – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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छात्रों का घर, यानी छात्रालय ऐसा स्थान होता है, जहाँ छात्रों का सर्वांगीण विकास होता है. महात्मा गाँधी इस सम्बन्ध से बेखबर नहीं थे. उन्हें मालूम था कि यदि भारत के छात्रालय शुद्ध नहीं रहें तो ये छात्रालय छात्रों के नहीं, गुंडा तत्वों के अड्डे बन जायेंगे. इसलिए महात्मा गाँधी ने इसकी शुचिता बरकरार रखने के लिए अन्तेवासियों के भी कर्तव्य निर्धारित किये. उन्होंने इसके बारे में उन्होंने बाकायदा जब-जब मौका मिला, तब छात्रालयों में रहने वाले अन्तेवासियों को सावधान करते रहे. महात्मा गाँधी ने कहा कि छात्रालय की मेरी कल्पना यह है कि छात्रालय एक कुटुंब की तरह हो, उसमे रहने वाले गृहपति और छात्र कुटुम्बियों की तरह रहते हों, गृहपति छात्रों के माता-पिता दोनों के स्थान की पूर्ति करे. यदि गृहपति के साथ उनकी पत्नी भी हो, तो पति-पत्नी दोनों मिलकर माता-पिता की तरह बरतें. आज तो हमारे यहाँ स्थिति करुणाजनक हो रही है. गृहपति ब्रह्मचर्य का पालन न करता हो, तो उसकी पत्नी छात्रालय में हरगिज नहीं ले सकती है. उसे शायद पति का छात्रालय में काम करना ही पसंद न आये और शायद आये तो इसीलिए कि बदले में रुपये मिलते हैं. वह छात्रालय में से थोडा सा घी चुरा लाये, तो भी पत्नी खुश होगी कि चलो मेरे बच्चों को ज्यादा घी खाने को मिलेगा. मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि गृहपति ऐसे ही होते हैं. बल्कि यह है कि आज हमारे सारे काम-काज इसी तरह की अस्त-व्यस्त हालत में हैं.
मेरी कल्पना के छात्रालय आज गुजरात में या भारत में वायरल ही होंगे. काफी हों तो मुझे इस बारे में मालुम नहीं है. गुजरात के बाहर तो हिंदुस्तान में ये संस्थाएं वैसे भी बहुत कम हैं. छात्रालय की संस्था गुजरात की खास देन है. इसके कई कारण हैं. गुजरात व्यापारियों का देश है. जो व्यापार से धन कमाते हैं, उन्हें शौक होता है कि अपनी जाति के बच्चों के लिए छात्रालय खोलें. छात्रालय जैसा नाम तो बाद में पड़ा. उन बेचारों ने तो बोर्डिंग ही कहा था. बाद में इन बोर्दिन्गों में संस्कारवान गृहपति आये, तब उन्होंने इनमे भावना का समावेश प्रारंभ किया.
मैं स्वयं विद्यालय के छात्रालय को ज्यादा महत्त्व देता हूँ. ऐसी बहुत सी बातें, जो स्कूल में नहीं सीखीं जा सकती हैं. शालाओं में थोडा-बहुत बौद्धिक शिक्षण भले ही दिया जाता हो, किन्तु वहां जो कुछ पढाया जाता है, विद्यार्थी उसे आत्मसात नहीं कर पाते. बस इतना ही होता है कि इच्छा न रहते हुए भी थोड़ी-बहुत बातें दिमाग में रह जाती हैं. यहाँ मैं विद्यालयों का अंधकारमय पक्ष ही सामने रख रहा हूँ. लड़कों और लड़कियों का छात्रालय में जैसा विकास किया जा सकता है, उतना केवल विद्यालय में नहीं हो सकता. मेरी आखिरी कल्पना तो यह है कि छात्रालय ही विद्यालय हों.
सेठों ने जो छात्रालय खोले हैं, वे दूसरी तरह के थे. वे स्वयं छात्रालय खोल कर दूर रहे. गृहपति ही इतने से ही अपना काम पूरा हुआ समझ लेता था कि लडके खा-पीकर स्कूल कालेज चले जाएँ. सेठों और गृह्पतियों दोनों ने दिलचस्पी ली होती, तो छात्रालय आज जैसे न रहते. अब हमें परिस्थिति को देख कर यह सोच लेना है कि उन्हें किस तरह सुधारा जा सकता है. यदि हम इरादा कर लें तो इन संस्थाओं की शकल बहुत कुछ बदल सकते हैं. जो बात स्कूलों में की जा सकती है, वह छात्रालयों में संभव है. गृहपति सिर्फ हिसाब रखने वाला ही न रहे, बल्कि इसकी भी जांच करे कि विद्यार्थी स्कूल में जाकर क्या सीखता है? वह विद्यार्थी को पुत्र अथवा अपना शिष्य मानकर, उसके विषय में ध्यान रखे. आज तो बहुत जगहों का ऐसा हाल है कि गृहपति को यह भी पता नहीं रहता, कि विद्यार्थी क्या खाते-पीते हैं.
छात्रालयों में जो एक गंभीर अराजकता फ़ैली हुई है, उसकी तरफ मैं खास तौर पर ध्यान खीचना चाहता हूँ. इस चीज की हमेशा उपेक्षा की जाती है. यह समझ कर कि हमारे छात्रालय की बदनामी होगी, गृहपति उसे जाहिर करते शर्माते हैं और छिपाते हैं. वे सोचते हैं कि हमारे विद्यार्थी जो बुरा काम करते हैं, वह खुल जायेगा. अत: वे माता-पिता को भी इसकी खबर नहीं देते. किन्तु इस तरह की बात नहीं छिपती. गृहपति अपने मन में यह समझते होंगे कि कोई नहीं जानता. किन्तु बदबू तो देखते-देखते फ़ैल जाती है. अनुभवी गृहपति समझ गये होंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ. गृह्पतियों को मैं इस बारे में चेतावनी देता हूँ. वे सावधान रहें, अपना धर्म अच्छी तरह समझें. जो छात्रालय को शुद्ध न रख सके, वे इस्तीफ़ा देकर इस काम से अलग हो जाए. यदि छात्रालय में रह कर लड़के निकम्मे बनें, उनके दृढ़ता न रहे, उनके विचार तितर-वितर हो जाएँ, बुद्धि के स्रोत सूख जाएँ, तो इस सबसे गृहपति की अयोग्यता सूचित होती है.
मैं जो कहता हूँ, उसकी बहुत सी मिसालें दे सकता हूँ. मेरे पास विद्यार्थियों के ढेरों पत्र आते हैं. बहुत से गुमनाम होते हैं और उन्हें मैं रद्दी की टोकरी में डाल देता हूँ. किन्तु उनका सार समझ लेता हूँ. बहुत से भोले-भाले विद्यार्थी अपना नाम पता देकर मुझसे उपयाय पूछते हैं. जब कुटैव नई-नई पड़ती है, तब गृहपति की तरफ से , उन्हें उसे छोड़ने में सहारा नहीं मिलता है. फिर जब उनकी आँखे खुलती हैं, तब उनकी दृढ़ता नष्ट हो चुकी होती है. मन पर काबू नहीं रह जाता और मुझ जैसा कोई व्यक्ति सलाह दे तो उस पर चलने की शक्ति नहीं रह जाती.
गृहपति काम करने में समर्थ व्यक्ति वेतन बहुत माँगते हैं. वे कहते हैं कि हमें अपनी विधवा बहनों की परवरिश करनी पड़ती हैं, लडके-लडकियों के शादी व्याह में खर्च करना पड़ता है. इस तरह के गृहपति योग्य हों, तो भी हमें उन्हें छोड़ना पड़ेगा. कुछ गृहपति ऐसे भी होते हैं, जो यह मानते हैं कि हमारा तो काम ही यह है. उन्हें दूसरा काम पसंद ही नहीं आता. कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं, जो गुजारे के योग्य लेकर काम करने को तैयार रहते हैं.
मैं जो कहता हूँ, उससे स्पस्ट होगा कि गृहपति को लगभग निर्दोष पुरुष होना चाहिए. जो व्यक्ति विद्यार्थियों पर असर डाल सकें, उसके मन में जगह बना सकें, वही गृहपति बन सकता है. ऐसा गृहपति न मिले तो लड़कों को इकट्ठा करना भयंकर काम है.
यह तो गृहपतियों की बात हुई. अब छात्रों से दो शब्द. छात्र अयांवश गृहपति को नौकर मान लें, और यह सोचने लगें कि उनका सब काम नौकर ही करेंगे, तो यह उनकी भूल होगी. छात्रों के जानना चाहिए कि छात्रालय उनके ऐश-आराम के लिए नहीं है, वे यह न सोचें कि छात्रालय को वे रुपया देतें हैं. वे जो कुछ देतें हैं, उससे ही खर्च पूरा नहीं हो जाता है. छात्रालय खोलने वाले सेठ गलती करके यह मान लेते हैं कि विद्यार्थी लाड-प्यार से रखने से अच्छे बनते हैं और उन्हें आराम देना धर्म है. इस समझ के कारण वे विद्यार्थियों को सहूलियतें देते हैं,किन्तु इससे अकसर धर्म के बजाय पाप पल्ले पड़ता है. इससे विद्यर्थी उलटे बिगड़ते हैं और परावलम्बी बनते हैं. जो विद्यर्थी बुद्धि से काम लेता है, वह यह हिसाब लगा लेगा कि छात्रालय के जिस मकान में वह रहता है, उसका किराया कितना है, नौकर-चाकर और गृह्पति की तनखाह कितनी है? यह सब छात्रों से नहीं लिया जाता. वे तो सिर्फ खाने का खर्च देते हैं. बहुत से छात्रलयों में तो खाना, कपडा और पुस्तक वगैरह मुफ्त दी जाती है. दान देने वाले लोग यह लिखा लेते हैं कि पढ़-लिख कर ये लड़के देश सेवा करेंगे, तो भी ठीक है. परन्तु वे इतने उदार होते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं करते. परन्तु छात्रों को समझ लेना चाहिए कि वे जो खाते हैं, उसक बदला नहीं देंगे तो कहा जाएगा कि चोरी का धन खाते हैं. बचपन में मैंने अखा भगत की यह कविता पढ़ी थी:
काचो पारो खावो अन्न, तेवुं छे चोरी नूं धन.
चोरी का माल खाने से छात्र वीर नहीं बनते हैं. तब छात्र यह निश्चय करे कि हम भीख का अन्न नहीं खायेंगे. वे छात्रालय की सुविधाओं का फायदा भले ही उठायेग, किन्तु इस सम्मलेन से लौट कर तत्काल गृहपति से, सारे नौकरों को विदा कर देने की प्रार्थना करें. या नौकरों पर दया का भाव हो, तो उनकी नौकरी रहने दें. किन्तु अपना सारा काम अपने हाथों से कर लेने का निश्चय करें. तभी आगे चल कर वे अच्छे गृहस्थ बन सकेंगे. देश की सेवा कर सकेंगे. आज ओत हमारे लोग ईमानदारी के धंधे से अपना, स्त्री का या माँ का गुजरा करने की भी ताकत नहीं रखते.
यदि कोई नौकरी मिलने पर यह घमंड करता हो कि मैं ईमानदारी का धंधा करता हूँ, तो उन्हें यह विचार भी करना चाहिए कि मिल के गुमाश्ते के काम करने पर मुझे ७५ रुपये मिलते हैं और वहीँ उस मजदुर को बड़े कुनाबेवाला होने पर भी सिर्फ १२ रुपये मिलते हैं. ऐसा क्यों? यदि वह यह सोचेगा तो फ़ौरन समझ जाएगा कि बड़ी तनखाह लेना योग्य नहीं है. यह रोजी ईमानदारी की नहीं है और शहरों में हम सब चोरी का ही अन्न खाते हैं. हम तो डाकुओं के एक बड़े जत्थे के कमीशन एजेंट हैं. लोगों से हम जो कुछ लेते हैं, उसका ९५ फ़ीसदी भाग विलायत भेज देते हैं. ऐसा काम करके कमाना भी न कमाने के बराबर है.
मैंने आज जो कुछ कहा है, उस पर विशवास हो तो आप आज ही से उस पर अमल करने लगें.
छात्रालय को तो ऋषिकुल होना चाहिए. वहां सब ब्रह्मचारी ही रहने चाहिए. जो व्याहे हुए हों वे भी, वानप्रस्थ धर्म का पालन करें. यदि आप ऐसी आदर्श स्थिति में दास-पांच साल रहें,तो आप इतने समर्थ बन सकते हैं कि भारत के लिए जो करना चाहे, कर सकते हैं. आज स्वराज्य का यज्ञ शुरू हो गया है. किन्तु भिक्षा की आशा रखने वाले लोग इसमे क्या भाग लेंगे? मुझ जैसा शायद कोई निकल पड़े, किन्तु मेरे पास तो ज्वार-बाजरे की रोटियां हैं और आपको तो सांझ पड़ते ही पकौड़ियाँ चाहिए. यदि किसी के मन में ऐसा गर्व हो कि समय आने पर हम सब ऐसा कर सकते हैं, आज से ही उसकी चिंता की क्या जरुरत है, तो ऐसा सोचने-कहने वाले मैंने बहुत देखे हैं. वे समय आने पर कुछ नहीं कर पाते हैं. जेल में जाने वाले वहां कैसा बर्ताव करते हैं, इसका हमें अनुभव हो चूका है. सन १९२०-२१ में जेल गये, तो उन्होंने खाने-पीने के मामले में कितना झगडा किया और कैसे-कैसे काम किये, यह सबको मालुम है. उससे हमें शर्माना पड़ा. यह नहीं मानना चाहिए कि इच्छा करते ही त्याग करना आ जाता है. यह बहुत करने से ही आता है. जिस आदमी में त्याग की इच्छा है, परन्तु जिसने छोटे-छोटे रसों को जीतने का प्रयत्न नहीं किया, उसे वे ऐन मौके पर दगा देते हैं. यह बात अनुभव सिद्ध हो चुकी है. यदि आज सब छात्र समझने का प्रयत्न करें, तो आप देखेंगे कि मैंने जो बात कही है, वे सादी हैं और उन पर आसानी से अमल किया जा सकता है ।
(नोट : प्रस्तुत आलेख मेरी किताब का अंश है। जनता की आवाज और लेखक की अनुमति के बगैर इसका या इसके किसी अंश का प्रकाशन अवैधानिक है। )
प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी – समाजवादी चिंतक व पत्रकार