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बड़ी खबर: मोदी युग में लोकतंत्र की फिर हुई हत्या, इस्तीफा के बाद येदियुरप्पा हो गए बहाल, विधायकी भी बरकरार

बड़ी खबर: मोदी युग में लोकतंत्र की फिर हुई हत्या, इस्तीफा के बाद येदियुरप्पा हो गए बहाल, विधायकी भी बरकरार
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नई दिल्ली। देश में संसदीय लोकतंत्र के नाम पर मजाक हो रहा है। या फिर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मोदी सरकार ने पूरी संवैधानिक व्यवस्था को अपने जूते की नोंक पर रख लिया है। आपको याद होगा जिस शाम को येदियुरप्पा कर्नाटक विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने वाले थे उस दिन दो भाजपा सांसदों बीएस येदियुरप्पा और बी श्रीरामुलु ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन बता रहे हैं कि 18 मई को इन दोनों समेत कुल तीन सदस्यों के इस्तीफे लोकसभा स्पीकर के पास पहुंचे थे।


स्पीकर ने तीनों सांसदों के इस्तीफे तत्काल प्रभाव से मंजूर कर लिए थे। येदियुरप्पा और श्रीरामुलु के इस्तीफे मंजूर होने की सूचना 19 मई को लोकसभा सचिवालय के बुलेटिन के जरिये लोकसभा की वेबसाइट पर भी चिपका दी गई थी। इसी के साथ लोकसभा की वेबसाइट पर बीजेपी के लोकसभा सदस्यों की कुल संख्या 271 दिखाई गई थी, जिसमें येदियुरप्पा और श्रीरामुलु के नाम नहीं थे। लेकिन महज तीन दिन बाद ही आश्चर्यजनक रूप से इन सूचनाओं में भारी फेरबदल हो गया।




येदियुरप्पा और श्रीरामुलु के इस्तीफे की सूचना वाला बुलेटिन लोकसभा की वेबसाइट से गायब हो गया और लोकसभा में भाजपा के सदस्यों की संख्या भी बढ़कर 274 हो गई, जिसमें येदियुरप्पा और श्रीरामुलु फिर से शामिल दिखाए गए हैं। इसी संख्या में 25 मई को एक अंक का और इजाफा हो गया और यह संख्या बढ़कर 275 हो गई 70 वर्षों में ऐसा जादू किसी ने पहले कभी देखा नहीं होगा।

लोकसभा के रूल-बुक के पेज नंबर 90 और 91 पर अंकित नियमों में इस आशय का उल्लेख है कि यदि इस्तीफा किसी आगामी तारीख से स्वीकार किया जाना प्रस्तावित है, तो बुलेटिन भी उसी तिथि को जारी होगा, जिस तिथि से इस्तीफा स्वीकार होना प्रस्तावित है।


इसमें एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि दोनों संस्थाओं का सदस्य रहने पर 14 दिन के भीतर किसी एक सदन से इस्तीफा देना पड़ता है। इस तरह का एक मामला 1999 में आया था जब केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गयी थी। उस समय उड़ीसा का मुख्यमंत्री होने के साथ गिरधर गोमांग लोकसभा के भी सदस्य थे। और उन्होंने संसद की कार्यवाही में भाग लेते हुए अटल सरकार के विश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया था। हालांकि वो उड़ीसा में विधानसभा के अभी सदस्य नहीं बने थे। बावजूद इसके उनकी कड़ी आलोचना हुई थी। यहां तो स्पीकर ने येदियुरप्पा और श्रीरामुलु का इस्तीफा स्वीकार कर लिया था।


और उससे संबंधित बाकायदा बुलेटिन जारी हो गया था। ऐसे में ये एक बड़ा सवाल बन गया है कि कैसे दोबारा उनकी सदस्यता बहाल की गयी। इस मामले में बीजेपी के साथ स्पीकर की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। लेकिन इससे एक बात तो कम से कम साफ हो गयी है कि बीजेपी न तो किसी संवैधानिक मर्यादा में विश्वास करती है न ही उसके लिए उसका कोई मूल्य है। और इन सब मूल्यों और विश्वासों से भी ऊपर ये शुद्ध रूप से फ्राड का मामला बनता है। जिसमें इस पूरी प्रक्रिया में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।

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