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बिहार: आखिरकार नीतीश कुमार-भाजपा में सीट बंटवारे को लेकर खिंच गई तलवारें, ''सुशासन बाबू'' की अंतरात्मा फिर जागने को है व्याकुल?

बिहार: आखिरकार नीतीश कुमार-भाजपा में सीट बंटवारे को लेकर खिंच गई तलवारें, सुशासन बाबू की अंतरात्मा फिर जागने को है व्याकुल?
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2019 आम चुनावों का साल है आगामी लोकसभा चुनावों के लिए जदयू और भाजपा सहित बिहार की एनडीए की चार सहयोगी पार्टियों में सीट बंटवारे के लिए घमासान शुरू हो चुका है। हाल ही में जदयू और भाजपा के बीच बड़े भाई छोटे भाई का जो तमाशा हुआ था और जदयू और भाजपा दोनों तरफ की बयानबाज के अलावा राम विलास पासवान की एलजेपी और उपेन्द्र कुशवाह की रालोसपा भी इस छोटे बड़े भाई के तमाशे में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कूद पडी थी। परंतु थोडे समय तक अखबारों की की सुर्खियों में रहने के बाद इस तमाशे पर विराम लग गया था। असल में यह तमाशा लोकसभा चुनावों में अधिक से अधिक सीट हासिल करने की प्रारंभिक नूरा कुश्ती से अधिक कुछ भी नही था। कुछ दिनों के विराम के बाद सीट बंटवारे का यह धामासान फिर से शुरू हो चुका है। जहां जदयू का कहना है कि सीट बंटवारा 2015 के राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजों को आधार होना चाहिए तो वहीं भाजपा चाहती है कि लोकसभा में सीट बंटवारे का आधार 2014 का लोकसभा चुनाव होना चाहिए।


वहीं दूसरे दोनों सहयोगी रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाह की भी सीटों के बंटवारे को लेकर बैचेनी बढ़ गयी है और वह भी जदयू के कारण उनकी सीटों में होने वाली कटौती को लेकर चिंतित हैं। भाजपा और उसकी दो सहयोगी पार्टियों-रामविलास पासवान की अगुवाई वाली एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाली आरएलएसपी की ओर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई वाले जदयू की मांग पर सहमति के आसार न के बराबर हैं। लेकिन जदयू नेताओं का दावा है कि 2015 का विधानसभा चुनाव राज्य में सबसे ताजा शक्ति परीक्षण था और आम चुनावों के लिए सीट बंटवारे में इसके नतीजों की अनदेखी नहीं की जा सकती। हालांकि एनडीए के साझीदारों में सीट बंटवारे को लेकर औपचारिक बातचीत अभी शुरू नहीं हुई है, लेकिन जदयू के नेताओं के हवाले से बताया जा रहा है कि भाजपा को यह जल्दी ही सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि कौन कितनी सीटों पर लडेगा ताकि चुनावों के वक्त कोई गंभीर मतभेद पैदा न हो और अभी से चुनावी तैयारियां शुरू की जा सकें। जदयू चाहता है कि सीटों का बंटवारा साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के आधार पर हो ताकि उसे उस आधार पर भाजपा से अधिक सीटें मिल सकें क्योंकि उन चुनावों में जदयू को राज्य की 243 सीटों में से 71 सीटें हासिल हुई थीं जबकि भाजपा को 53 और एलजेपी-आरएलएसपी को दो-दो सीटें मिली थीं।


ध्यान रहे जदयू उस वक्त आरजेडी और कांग्रेस का सहयोगी था, लेकिन पिछले साल वह इन दोनों पार्टियों से नाता तोड़कर एनडीए में शामिल हो गया और उसने पाला बदलकर राज्य में भाजपा के साथ सरकार बना ली थी। वहीं भाजपा के नेता ने जदयू की दलील को अवास्तविक बताते हुए कह रहे हैं कि चुनावों से पहले विभिन्न पार्टियां ऐसी चाल चलती रहती हैं। उनका दावा है कि 2015 में लालू प्रसाद की अगुवाई वाले आरजेडी से गठबंधन के कारण जेडीयू को फायदा हुआ था और नीतीश की पार्टी की असल हैसियत का अंदाजा 2014 के लोकसभा चुनाव से लगाया जा सकता है जब वह अकेले दम पर लड़ी थी और उसे 40 में से महज दो सीटों पर जीत मिली थी और ज्यादातर सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। यहां तक कि कुछ भाजपा नेताओं का कहना है कि नीतीश यदि इस बार अकेले लडते हैं तो शायद उन्हें वह दो सीटें भी बचाना भारी पड़ जायेगा। दूसरी तरफ 2014 के आम चुनावों में भाजपा को बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 22 पर जीत मिली थी जबकि इसकी सहयोगी एलजेपी-आरएलएसपी को छह और तीन सीटें हासिल हुई थी।


वहीं जदयू 2013 तक भाजपा की सहयोगी था। उस वक्त वह राज्य में निर्विवाद रूप से वरिष्ठ गठबंधन साझेदार था और लोकसभा चुनावों में जदयू 25 और भाजपा 15 सीटों पर चुनाव लड़ती थी। परंतु 2014 में बीजेपी की जोरदार जीत ने समीकरण बदल दिए थे परंतु एनडीए में अन्य पार्टियों के प्रवेश का मतलब है कि पुराने समीकरण अब प्रासंगिक नहीं रह गए। सीट बंटवारे को लेकर एनडीए के साझेदारों में अभी बातचीत शुरू नहीं हुई है, लेकिन जदयू ने मोलभाव के लिए तिकडमबाजी शुरू कर दी है। जदयू के नेताओं ने हाल में आयोजित योग दिवस समारोहों में हिस्सा नहीं लिया और भाजपा को चुनौती देने के नजरिये से पार्टी ने कहा कि वह इस साल के अंत में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारेगी। बहरहाल, सीट बंटवारे को लेकर एनडीए में घमासान तेज हो चुका है सिर्फ जदयू ने नही भाजपा के बाकी दो सहयोगियों ने भी नई राहे खोजने का इशारा दे दिया है। पासवान के बारे में कहावत है कि वह मौसम का मिजाज किसी मौसम विज्ञानी की तरह भांप लेते हैं और मौका मिलते ही सवारी बदल लेते हैं।


दूसरी तरफ कुशवाहा ने बेशक राजद के साथ आने के तेजस्वी के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया हो परंतु यह भी सत्य है कि राजनीति में हमेशा ही ना का मतलब ना नही होता है। इसके अलावा उनका नीतीश से जो छतीश का आंकडा है उसके मद्देनजर तो ना का मतलब बिल्कुल भी ना नही समझना चाहिए। 2019 के आम चुनावों तक एनडीए की हार की आहट तेज हो चुकी होगी और तब एनडीए का यह घमासान क्या रंग दिखायेगा वह देखना दिलचस्प होगा।

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