दुकान में पिज़्ज़ा-बर्गर बेचने को मजबूर इस लड़के के पिता अरबपति हैं :जानिए क्या है वजह
BY Jan Shakti Bureau14 Aug 2017 10:54 PM IST

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Jan Shakti Bureau14 Aug 2017 10:54 PM IST
सूरत (गुजरात) : अरबपति हीरा के व्यापारी घनश्याम ढोलकिया ने ऐसी परंपरा निभाई कि उनके 23 साल के बेटे को मैकडोनाल्ड में काम तक करना पड़ गया। खर्च चलाने के लिए उसे पिज्जा और बर्गर तक सर्व करना पड़ा। इससे पहले उन्होंने परंपरा के तहत बेटे को मात्र 500 रुपए देकर हैदराबाद भेज दिया था। कहा था कि वो बिना पहचान बताए वहां रहकर अकेले कमाए-खाए। पिता ने मोबाइल भी नहीं दिया लेकिन कहा कि कहीं से दिन में एक बार घर पर फोन कर सकते हो.
बेटे के लिए पिता ने रखी थी अजीब शर्तें...
धनश्याम ढोलकिया के बेटे का नाम हितार्थ है। उन्होंने 23 साल के अपने बेटे को भेजने से पहले कुछ शर्तें रखी थी। एक शर्त ये थी कि एक जगह एक हफ्ते से अधिक काम नहीं करना है. इसके पीछे की वजह ये थी कि हितार्थ के पिता ये चाहते थे कि वो ज्यादा से ज्यादा जगहों पर काम करे जिससे उसे लोगों के संपर्क में आने का मौका मिलेगा. हितार्थ हैदराबाद में रहा और एक महीने काम करने के बाद 5000 रुपए कमा कर लौटा.
क्या है परंपरा और क्यों भेजा बेटे को
धनश्याम का कहना है कि ये खास परंपरा उनकी फैमिली में कई साल से चली आ रही है. दैनिक भास्कर में छपी खबर की मानें तो इसके तहत वे अपनी युवा पीढ़ी को दुनियादारी समझने की ट्रेनिंग देते है, ये परंपरा है. उनके मुताबिक, हितार्थ के उन्होंने एक दिन एक लिफाफा दिया। हितार्थ को नहीं पता था कि इसमें क्या है। जब उसने लिफाफा खोला तो उसमें हैदराबाद का टिकट निकला. इसके बाद सारी बातें उन्होंने बताई। फिर कई सवाल लिए हितार्थ हैदराबाद पहुंचा। मोबाइल नहीं था, इसलिए वहां किसी से फोन करने के लिए मोबाइल मांगकर पिता के दोस्त को फोन किया. अनजान नंबर देख कर उन्होंने फोन नहीं उठाया। इधर, घर में हितार्थ को लेकर मां का रोना बंद नहीं हो रहा था। दूसरे दिन जब हितार्थ ने फोन किया तब फैमिली की जान में जान आई.
ऐसे निकला हितार्थ का पहला दिन
हैदराबाद पहुंचने के बाद पहला पूरा दिन नौकरी की तलाश में निकल गया। चिंता हुई कि रहने की जगह न मिली तो फुटपाथ पर सोना पड़ेगा। इसलिए सस्ता ठिकाना तलाशने लगा.कोई आडेंटिटी कार्ड नहीं था, ऐसे में कौन रखने को तैयार होता। आखिर में वो आरके लॉज के मालिक से मिला। उन्होंने उधार में रहने का इंतजाम करवाया। भूख लगी थी, लेकिन जेब में पैसे कम थे.इसलिए इधर-उधर भटका, एक ठेले पर नजर पड़ी, 20 रुपए में राइस प्लेट। जिंदगी में पहली बार राइस प्लेट खाई। दो दिन भटकने के बाद मैकडोनॉल्ड में नौकरी मिली. मैकडोनॉल्ड में प्रोडक्शन, सेल्स एवं इन्वेन्टरी में काम किया तब समझ में आया कि नौकरी क्या चीज है। एक सप्ताह बाद नौकरी बदलनी थी। मैकडोनॉल्ड में महीने में वेतन मिलता है। दो दिन तक मैनेजर को समझाया, मेरे धीरज का सुखद परिणाम रहा। मैनेजर ने अपनी जेब से मेहनताने के 1500 रुपए दिया। दूसरी नौकरी की तलाश का काम फिर शुरू किया। इस क्रम में जिंदगी में पहली बार बस में धक्का-मुक्की देखी-सही.
बेटे के लौटने पर पिता ने कही ये बात
हितार्थ को दूसरी नौकरी व्हाइट बोर्ड बनाने वाले कारखाना में मिली। बाइक पर घूम-घूम कर मार्केटिंग करना और ऑर्डर डिलिवरी करना था। बाइक पर भी जिंदगी में पहली बार बैठा था. पूरे दिन की भागदौड़ के चलते शाम होते-होते थक कर चूर हो जाता। इन दो नौकरियों से मैंने सीखा कि मेहनत का कोई शॉर्टकट नहीं है. नौकरी तलाश करने के दौरान रुकगुप्त पराशार्थ नामक एक सज्जन से रिक्शे में मुलाकात हुई। उन्होंने पहचान के बिना ही मुझे ठहरने की जगह दी। यही नहीं अपना मोबाइल भी दिया। कदम-कदम पर लोगों से मदद मिली. तीसरी नौकरी मैंने एडीडॉस के शो-रूम में की।
हालांकि उस वक्त तक मेरे पास तीन जगह के विकल्प थे। मैंने एडिडॉस को चुना। तीनों नौकरी के दौरान सहकर्मचारियों ने प्रतिस्पर्धा करने की बजाए मुझे काम सिखाया. तब समझ में आया कि दूसरे की मदद करने की भावना कितनी ऊंची है. हितार्थ के पिता घनश्यामभाई का इस बारे में कहना है कि हम संघर्ष करके ही आगे आए हैं। इसलिए छोटी-छोटी बातों का महत्व-मूल्य समझते हैं। हमारे बच्चे भी यह सब समझें, इसके लिए इन्हें अज्ञातवास में भेजना जरूरी है.
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