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जीवनी

भारत में समाजवादी आंदोलन की स्थापना कब और कैसे हुई?

भारत में समाजवादी आंदोलन (Socialist Movement in India) की स्थापना को लगभग 85 वर्ष हो चुके हैं।

भारत में समाजवादी आंदोलन की स्थापना कब और कैसे हुई?
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नई दिल्ली: भारत में समाजवादी आंदोलन (Socialist Movement in India) की स्थापना को लगभग 85 वर्ष हो चुके हैं। इन 85 वर्षों में समाजवादी नेताओं (Socialist लीडर्स) के शुरूआती 13 वर्ष तो राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए देश को गुलामी से निजात और आजादी दिलाने में गुजरे। खासकर 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' (Quit India Movement) के दौरान समाजवादी नेताओं की अहम भूमिका थी। जयप्रकाश नारायण,(Jayaprakash Narayan) राममनोहर लोहिया, (Ram Manohar Lohia) युसूफ मेहरअली, (Yusuf Mehrali) अरूणा आसफ अली, (Aruna Asaf Ali) अच्युत पटवर्धन (Achyut Patwardhan) और ऊषा मेहता (Usha Mehta) तो 'अगस्त क्रांति' (August revolution) आंदोलन के हीरो थे। जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या (Assassination of Mahatma Gandhi) के बाद कांग्रेस पार्टी में शामिल समाजवादी नेताओं ने तय किया कि वे कांग्रेस पार्टी से अलग होकर अपनी सोशलिस्ट पार्टी (Socialist Party) बनाएंगे और रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएंगे।

मार्च 1948 में समाजवादियों ने नासिक में अपनी अलग सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर स्वतंत्र भारत में नए सिरे से राजनीति शुरू की, अपनी अलग विचारधारा बनाई। पार्टी की नीति और सिद्धांत बनाए और एक जिम्मेदार विपक्षी दल के रूप में राजनीति शुरू की। दूसरी ओर पंडित जवाहरलाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) के नेतृत्व वाले कांग्रेस पार्टी ने संविधान सभा (Constituent Assembly) का गठन कर देश के नए संविधान के निर्माण का काम शुरू किया। समाजवादियों और वामपंथियों (Socialists and Leftists) ने अपने आप को इस संविधान से अलग रखा लेकिन 1952 में हुए देश के पहले आम चुनाव में शिरकत की। इन चुनावों में समाजवादियों को उनकी आशा के अनुरूप तो कामयाबी नहीं मिली लेकिन उनकी पहचान देशभर में एक प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभर कर सामने आई। इन चुनावों में कुछ समय पहले कांग्रेस से अलग हुई किसान मजदूर प्रजा पार्टी (Kisan Mazdoor Praja Party) ने भी हिस्सा लिया और उसे भी कोई खास कामयाबी नहीं मिल सकी। लिहाजा इन दोनों दलों के नेताओं ने और सुभाष चन्द्र बोस द्वारा गठित फाॅरवर्ड ब्लाॅक (Forward Block formed by Subhash Chandra Bose) के नेताओं ने तय किया कि तीनों दलों को मिला कर एक नए दल का गठन किया जाए।

नतीजे में इन तीनों दलों के विलय से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया। आचार्य जे. बी. कृपलानी (Acharya J. B. Kripalani) नई पार्टी के अध्यक्ष और अशोक मेहता महासचिव बनाए गए। 1 जनवरी 1954 को प्रसोपा का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन इलाहाबाद में हुआ और अशोक मेहता की जगह राममनोहर लोहिया महासचिव चुने गए। पार्टी का महासचिव बनते ही लोहिया ने उत्तर प्रदेश में आबपाशी दरों में इजाफे के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया जिसमें कई हजार समाजवादी कार्यकर्ता जेल गए। खुद डाॅ. लोहिया फतेहगढ़ (फर्रूखाबाद-यू.पी.) में गिरफ्तार किए गए और जब उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में रिट दायर की तो उन्हें नैनी जेल में रखा गया। डाॅ. लोहिया ने अपनी याचिका के जरिये उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी गिरफ्तारी के लिए इस्तेमाल किए गए 'स्पेशल पाॅवर एक्ट' को चुनौती दी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लोहिया की याचिका को स्वीकार करते हुए स्पेशल पाॅवर एक्ट को गलत बताया और इस आधर पर करीब 5 हजार समाजवादी कार्यकर्ता रिहा कर दिए गए।

इस सत्याग्रह के जरिए लोहिया ने अपनी जेल, फावड़ा और वोट की रणनीति का महत्व बताते हुए साबित किया कि किस तरह लोकतंत्र में अहिंसक रूप से सिविल नाफरमानी और सत्याग्रह के जरिए अपनी बात को मनवाया जा सकता है। लेकिन इसी समय दक्षिण के त्रावणकोर-कोचीन (केरल) राज्य में पट्टम थानु पिल्लई के नेतृत्व वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की सरकार द्वारा निहत्थे मजदूरों पर गोली चलवाये जाने की घटना पर राममनोहर लोहिया ने अपनी पार्टी की सरकार का ही इस्तीफा मांग लिया और मुख्यमंत्री द्वारा इस्तीफा न देने के कारण खुद महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया। नतीजे में पार्टी में एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया जिसकी परिणति पार्टी में विभाजन के रूप में हुई। यह प्रसोपा में पहला विभाजन था। 1955 के आखिर में डाॅ. लोहिया ने हैदराबाद में अपनी अलग सोशलिस्ट पार्टी बनाई और उसके अध्यक्ष बने।

दरअसल तब से लेकर अब तक समाजवादी आंदोलन का इतिहास टूट और एका का इतिहास रहा है। 1964 में प्रसोपा और सोपा को मिलाकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा का गठन किया गया, लेकिन यह एका भी ज्यादा समय तक नहीं रह सका। पहले तो प्रसोपा के कुछ लोग अशोक मेहता के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और फिर फरवरी 1965 में प्रसोपा के कुछ दूसरे लोगों ने संसोपा से अलग होने का फैसला किया और अपनी पार्टी दोबारा पुनर्जीवित कर ली। हालांकि 1971 के आम चुनावों के बाद दोनों दल दोबारा मिले और इस विलय के बाद सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया। 1977 में आपातकाल हटने के बाद जब पांच दलों भारतीय लोकदल, भारतीय जनसंघ, संगठन कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस फाॅर डेमोक्रेसी को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया तब समाजवादियों की अपनी राजनीतिक पहचान एक तरह से खत्म हो गई और इस समय देश में कोई ऐसी 'मेनस्ट्रीम' पार्टी नहीं है जो अपने आप को सही मायनों में समाजवादी विचारधारा, नीति और सिद्धांत का दावा करने वाली पार्टी कह सके।

हालांकि देश में आज भी कई ऐसे नए राजनीतिक दल है जो अपने आप को समाजवादी विचारधारा का वारिस कहते हैं लेकिन उनका आचरण, नीति और सिद्धांत समाजवाद से कोसों दूर है। देश में इस समय दो ध्रुवीय राजनीति हो रही है जिसमें एक धड़े का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है तो दूसरा धड़ा कांग्रेस पार्टी के साथ है। इन दोनों ही ध्रुवों में गजब की समानता है। इन दोनों ही दलों की वित्त नीति, विदेश नीति और गृह नीति एक जैसी है। पिछले 29 वर्षों से उदारीकरण, वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार के नाम पर अमेरिका और उसके समर्थक देशों तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियाँ जिन डाॅ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में1991 मे देश पर थोपी थी वह अनवरत रूप से जारी है।

जल, जंगल, जमीन का अध्किार रखने वाले आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। दलित, पिछड़े और अकलियत के लोगों पर जुल्म हो रहे हैं और उनकी हत्याएँ की जा रही हैं। देश में क्षेत्रीय विषमता और गैर-बराबरी बढ़ रही है। नतीजे में नक्सलवाद और माओवाद बढ़ रहा है जिसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। ऐसे में उन सबका यह सामुहिक दायित्व बनता है, जो समाजवादी विचारधारा में यकीन रखते हैं, कि वह आगे आएं और देश के समक्ष मुँह बाये खतरों से लोगों को आगाह कराए न केवल प्रतिकात्मक रूप में बल्कि अमल में भी और उसके निदान के कारण खोजें।

आज राजनीतिक दलों के एजेंडे में, समाज के प्रभावशाली वर्गों में, मीडिया में इस देश के आम और गरीब की जगह लगातार कम होती जा रही है। उनके दुख दर्द की बात करने वाला कोई नहीं है। देश के गरीब, दलित, पिछड़े, आदिवासी, अकलियत, पीड़ित, शोषित, वंचित और हाशिए पर रहने वाले लोगों की आवाज लगातार खत्म होती जा रही है और उनके दुख दर्द की खबर लेने वाला कोई नहीं है।

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