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हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपंथी मानवता के लिए बन रहे हैं खतरा! चौधरी शम्स

हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपंथी मानवता के लिए बन रहे हैं खतरा! चौधरी शम्स
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यह सवाल मेरे दिल व दिमाग में गूंजते ही सबसे पहले मैंने अपने गिरेबान में झाँकने की कोशिश की तो पाया कि यह मेरे मुस्लिम क़ौम की बदनसीबी है कि हमारी रहनुमाई ऐसे लोगों के हाथों में है, जो खुद को क़ुरऑन व हदीश का आलिम कहते हैं । पर सच यह है कि ये क़ुरऑन व हदीश के सिर्फ क्यासी आलिम हैं, तहक़ीकी आलिम नहीं हैं । इनकी इल्मी कयास का तस्दीक क़ुरऑन मज़ीद की बहुत ही कम आयतें करती हैं । मुक़द्दस क़ुरऑन कयास और गुमान को सिरे से ख़ारिज करता है और तहक़ीक की तालीम देता है । तहक़ीकी तालीम के लिए उसूल का होना जरूरी है, जो इन आलिमों के पास नहीं है । जब इनके पास उसूल ही नहीं है तो फिर तहक़ीकी ईल्म कैसे मिलेगी और बिना तहक़ीकी ईल्म के क़ुरऑन मज़ीद की किसी भी आयत के माअने व मफ़हूम के ऐजाज को कैसे जान सकते हैं । इसका नतीज़ा अभी-अभी सुनने व जानने को मिला है ।


बिहार प्रदेश में राजनीतिक उठा-पटक के दौरान जनता दल यूनाइटेड के नेता नितीश कुमार ने राष्ट्रिय जनता दल व काँग्रेस के साथ विधान सभा चुनाव पूर्व बने महागठबंधन को तोड़कर एनडीए में शामिल होकर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने व मुख्यमंत्री बनने का काम किये हैं । जिसका नतीज़ा है कि बिहार में राजनीतिक सरगर्मियां काफी तेज़ हुई हैं । इसी दौरान अति उत्साह या इसे अपने को चर्चित बनाने का एक राजनितिक चाल/दाव कहें को अपनाते हुए जनता दल यूनाइटेड का एक मुस्लिम नेता ने "जय श्रीराम" का नारा क्या लगा दिया पूरे देश में भूचाल आ गया । उस मुस्लिम नेता के विरुद्ध "फतवा" जारी होने, निकाह टूटने आदि की बातें जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी । जो आज हमारे देश में सबसे चर्चित विषय बिंदु बन गया है । बनना भी चाहिए क्यों कि यह विषय है भी चर्चा का विषय । फ़तवा जारी हुआ या नहीं हुआ यह मैं दावे के साथ कुछ भी नहीं कह सकता । क्यों कि मैंने सोशल मिडिया पर फ़तवा जारी होने एवं फ़तवा जारी न होने दोनों तरह की खबरें नज़र के सामने से गुजरी हैं । खबरों में भी इसे प्रमुखता मिली थी ।



लेकिन यह कहते हुए मैं कत्तई गुरेज़ नहीं करूँगा कि अगर किसी मुफ़्ती हज़रात ने एक मुस्लिम राजनीतिज्ञ को महज़ "जय श्रीराम" का नारा लगा देने के वजह से फ़तवा जारी किया है तो यह फ़तवा मुफ़्ती हज़रात के क्यासी व गुमानी ईल्म, संकीर्ण मानसिकता और कट्टरपंथी सोच के साथ एकतरफा दिया गया फ़तवा है । जिसमें उस मुस्लिम विधायक को सुनने व सफाई देने का मौका नहीं दिया गया है । जो फ़तवा देने वाले मुफ़्ती हज़रात के गैरउसूल न होने को दर्शाता है । सबसे पहले तो यह मामला पूर्णतया राजनीति का है और दूसरा यह कि महज़ जुबान से "जय श्रीराम" बोल देने से एक मुस्लिम का ईमान व अक़ीदा इतना कमजोर है कि वह तुरन्त बदल जाता है । महज़ जुबान से जय श्रीराम का नारा लगाने या मन्दिर में जाने, मन्दिर में किसी पुजारी द्वारा टीका लगा देने या हो रहे पूजा के दौरान वहाँ बैठ जाने से कोई मुसलमान न तो हिन्दू बन जाता है अथवा कोई हिन्दू नेता मुस्लिम टोपी पहनकर मुस्लिम इबादतगाहों में जाने, मजारों पर चादरपोशी करने व अफ्तार में शामिल होने मात्र से हिन्दू से मुसलमान नहीं बन जाता ।



अगर ऐसा फ़तवा कोई जारी हुआ है तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि फ़तवा देने वाले मुफ़्ती हज़रात ने एक मुसलमान के पुख़्ता ईमान को कमतर व कमजोर होना साबित नहीं किया है बल्कि दुनिया के सभी मुसलमानों के ईमान की मजबूती पर सवालिया निशान लगाने का काम किये हैं । मैं फ़तवा देने वाले मुफ़्ती हज़रात से और जय श्रीराम के नारा लगा देने पर तमाम तरह की बकवास करने वालों से यह जानना चाहूँगा कि वे "जय श्रीराम" को क्या समझते हैं, क्या जानते हैं ? जय श्रीराम का माअने व मफ़हूम जाने बिना, उसके हकीक़त को समझे बिना ही इसके उद्घोष (नारा लगाने) मात्र से ही फ़तवा जारी करना ही फ़तवा जारी करने वाले हज़रात के क्यासी, गुमानी ईल्म होने के साथ-साथ उनके संकीर्ण मानसिकता व कट्टरपंथी मानसिकता को साबित करता है ।

जय श्रीराम का माने है "श्रेष्ठ राम" की जय । अब सवाल उठता है कि श्रेष्ठ राम कौन हैं ? इनका हकीक़त क्या है ?

इसे जानने के लिए हम "रामचरित्र मानस" जो गैरवेदक लिटरेचर में हिन्दू समाज का सबसे महत्वपूर्ण महान धार्मिक पुस्तक मानी जाती है में यह कहा गया है कि "वेदों में 'राम' को तीनो जहानों का गुरु कहा गया है"। वेदों में श्रीरामचन्द्र जी के सुंदर नाम, गुण, व्यवहार व कृत्य सभी अनगिनत बताये गये हैं । हिन्दू रवायत (रिवाज़) में एक बहुत ही अहम मंत्र का ज़िकर आता है जिसे "रामजी का तारक मंत्र" कहते हैं । वह मंत्र है "रां-रामायनमः" अर्थात राम-रामायनमः । इसका मतलब है कि राम के राम या राम के बताये राम का नमः करो, पूजा करो । अर्थात जो रामचन्द्र जी जिस्मानी शक़्ल में दुनिया में माने जाते हैं उनकी तरफ से खुद यह दर्शाया जा रहा है कि इन्होंने अपनी पूजा करने को नहीं बल्कि अपने से ऊपर पूज्यनीय श्रेष्ठराम की पूजा को निजात (मोक्ष) का जरिया बताया है । हिन्दू भाई उसी श्रेष्ठराम की जयकारा "जय श्रीराम" का उद्घोष कर करते हैं ।


हिन्दू धर्म के अक़ीदा के मुताबिक़ चार युग हैं । सबसे पहले "सतयुग" जब सिर्फ हक़ ही हक़ था, सत्य ही सत्य था । इसके बाद तनज्जुल आता रहा । दूसरा युग "त्रेतायुग" कहलाता है जिसे भगवान रामचन्द्र जी का युग कहा जाता है । इसके अंत के बाद "द्वापरयुग" शुरू हुआ जिसे भगवान श्रीकृष्ण का युग कहा जाता है । द्वापरयुग के अंत के बाद मौजूद "कलियुग" शुरू हुआ जो अभी चल रहा है । कलियुग जब ख़त्म हो जायेगा तो दुबारा सतयुग आएगा । यानि नूरानी दौर की शुरूआत होगी । इन सभी युगों में कलियुग को धर्मग्रन्थों में सबसे छोटा युग बताया गया है । कलियुग में ही मनु महाराज व सतरूपा से मनुष्यों की उत्तपत्ति बताया जाता है । इसका मतलब यह हुआ कि इस अक़ीदा के मुताबिक जबसे धरती पर जिस्मानी ज़िन्दगी की शुरूआत हुई द्वापरयुग उससे पहले और त्रेतायुग उससे भी पहले और सतयुग इन सभी युगों से पहले लाखों साल या करोड़ों साल पर फैले हुए ज़माने हैं । इन्हीं ज़मानों में श्रीराम व श्रीकृष्ण का अस्तित्व माना जाता है । जिसे हम सही स्वीकार कर लें तो हमारे अक़ीदा के मुताबिक यह बात बिल्कुल साफ है कि यह हस्तियाँ इंसानी जिस्मों के दौर से पहले की हैं । इंसानी जिस्मों के दौर से पहले लाखों-लाख साल पर फैले हुए जमाने की सिलसिले की रवाईयात मुस्लिम धार्मिक किताबों में भी मिलते हैं । इससे भी साफ तौर पर यह मालूम होता है कि "श्रीराम" कोई जिस्मानी व्यक्ति नहीँ हैं बल्कि कोई श्रेष्ठ हस्ती हैं ।


आइये अब "राम" नाम का लफज़ी माने जानने की कोशिश करते हैं । डिक्शनरी नालन्दा विशाल शब्द सागर में "राम" का माने ईश्वर, घोड़ा, तीन की संख्या, राजा रामचन्द्र जी का नाम दर्शाया गया है । मैं ईश्वर व तीन की संख्या पर आता हूँ । ईश्वर का मतलब साफ है । इसपर कुछ कहने व लिखने की जरूरत नहीं है । अब तीन की संख्या को लीजिये । तीन की संख्या से मुराद है "तीनो जहानों का गुरु, तीन शक्तियों पहला पैदा करना, दूसरा परवरिश करना और तीसरा समाप्त कर देना का एक स्वामी । या यह कहें की तीन मुक़ाम पहला रूहानी दौर, दूसरा जिस्मानी दौर और तीसरा मुक़ाम आख़िरत में बख़्शिश कराने वाला से भी है । जिसको समझने के लिए तंग ज़ेहनी, क्यासी व गुमानी ईल्म की जरूरत नहीं है बल्कि उसूल के साथ तहक़ीकी ईल्म की जरूरत है । जो बड़ा ही मुश्किल काम है ।



ऋगवेद का पहला मंत्र "अग्नि" की पूजा आराधना से शुरू होता है । अग्निमीले (सारी पूजा व गुणगान अग्नि के लिए है)। "अग्निदूतं वर्णीमहे" हम अग्नि को दूत "पैगम्बर" चुनते हैं । धार्मिक ग्रन्थों में राम को अग्नि बताया गया है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे मुस्लिम मआसरे के मज़हबी किताबों में आया है "कुंतो कुंजम मख़फ़ीहन" अर्थात मैं मख़फ़ी खज़ाना था, मैंने अपने नूर से अपने महबूब नबी (दूत) बनाया । जिन्हें तख़लीके अव्वल कहा जाता है यानि कि ईश्वर की सबसे पहली रचना । इसमें फर्क़ सिर्फ अग्नि व नूर का है । मफ़हूम दोनों का एक ही रौशनी से है । जो तहक़ीक का विषय है । मेरा मानना है कि हिन्दू व मुस्लिम दोनों समाज के धर्मगुरु व आलिम-मुफ़्ती हज़रात अपनी-अपनी संकीर्ण मानसिकता व कट्टरपंथी विचारधारा को त्याग कर धार्मिक ग्रन्थों का तहक़ीकी नज़रिया व ईल्म के साथ वेदों व क़ुरऑन करीम का माअने व मफ़हूम तलाश करें तो दोनों समाज में एक-दूसरे के प्रति, एक दूसरे के धर्मों के प्रति जो गलतफहमियां व्याप्त हैं वह दूर होकर सभी सतयुग के तरफ बढ़ना शुरू कर देंगे । सबको सत्य का ज्ञान हो जायेगा । सभी सत्य से परीचित हो जाएँगे । यही दौर मुस्लिम नज़रिये से नूरानी दौर का शुरूआत होगा ।


फ़तवा देने या कट्टरपंथी मानसिकता के साथ कोई ब्यान जारी करने से पहले सैकड़ों बार यह सोचने की जरूरत पड़ती है कि इसका असर क्या होगा, इसका समाज या देश पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ? साथ ही यह दिल और दिमाग में जरूर रहना चाहिए कि जिसे हम अपना रब मानते हैं वह सिर्फ हमारा नहीं बल्कि पूरे आलम का रब है, रब्बुलआलमीन है जिसके हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि सभी बन्दे हैं । हम सभी उसे अलग-अलग भाषा के जरिये अलग-अलग नाम से जय जयकारा करते हैं, स्तुति और गुणगान करते हैं । हमें यह सोचने की जरूरत है कि कट्टरपंथ ही कट्टरपंथ की संजीवनी है । मुस्लिम कट्टरपंथी विचारधारा व हिन्दू कट्टरपंथी विचारधारा एक-दूसरे के पूरक हैं । एक दूसरे को ज़िन्दा रखने व मजबूती प्रदान करने में सहायक हैं । हमें इस विषय बिंदु पर बड़े ही गम्भीरता के साथ विचार व अध्यन की जरूरत है । अल्लाह तऑला ने इंसान को अफज़ल तॉक़ पर पैदा किया है, न कि मुसलमान, हिन्दू या दीगर को । मुस्लिम समाज के आलिमों को "मॉ कानन नाशो इल्ला उम्मतिवं वाहेदतं फख्तलफु"० यानि मैंने एक ही क़ौम पैदा की जो मुख़्तलिफ़ हो गयी को जेहन में रखते हुए मुख़्तलिफ़ को मुत्तहिद करने की जरूरत से काम करने की अहम जरूरत है । सबको एक करने व इंसानियत की राह ले चलने की जरूरत है । इंसानियत ही अल्लाह तऑला की नज़र में सबसे बड़ी इबादत है । मानवता ईश्वर की दृष्टि में सबसे बड़ी पूजा व भक्ति है । मुहब्बत अल्लाह को सबसे ज़्यादह पसन्द है । जहाँ प्रेम है वहीं भगवान है ।


मैं अपने मुस्लिम समाज के आलिम व मुफ़्ती हज़रात से यह कहना चाहूँगा कि मुस्लिम मज़हबी किताबों के जरिये दुनिया में एक लाख चौबीस हज़ार या कमोबेस दो लाख चौबीस हज़ार अम्बिया एकराम का दुनिया में आना पता चलता है जिनमें तीन सौ तेरह नबीओं का आना पता चलता है तो वे सबसे पहले इसकी तहक़ीक करें कि इन सभी नबीओं, अम्बिया एकराम को गैरमुस्लिम मजहब में या उनके धार्मिक ग्रन्थों में किस नाम से जाना पहचाना जाता है । ऐसी कोशिश और इसका नतीज़ा सबकी बन्द आँखें खोल देगी और ज़ेहनों की गलतफहमियां साफ हो जायेगी । मुझे अपने इस विचार को लेकर चिंता है यह उन हज़रात तक कैसे पहुंचेगा जिन्होंने फ़तवा जारी किया है । खास तौर से उन मुस्लिम कट्टरपंथी विचार रखने वाले लोगों तक कैसे पहुंचेगा और वे कैसे पढ़ पायेंगे जो अपनी कट्टरपंथी विचार व बयानों से हिन्दू कट्टरपंथ को मजबूती व बढ़ावा देने का काम करते हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं और ये दोनों अपने-अपने निज़ी मुफाद के लिए इंसानियत को खत्म करने पर आमादा हैं ।

चौधरी शम्स -

एडिटर- यूनिवर्सल टुडे!


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